जवाहर किरनावली | Jawahar Kirnawali
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
408
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)संवत्सरी [ ७
कांतिक शुक्ला ७
जब तक तुम्हारा मासतिष्क और हृदय निंदा ओर अशंता
को समान रूप में नहीं महए. करता, समझना चाहिए फ
तुमने तब तक परमात्मा को पाहिचाना ही नहीं है |
27५ ११ রা ६ শপ
४ ग श्र প্র
प्रशशा ओर निन््दा सुनकर हर्ष ओर विषाद की उत्पात
वद्धे के विकार के कारण होती है। बुद्धि का यह -विकार
परमात्मा की आआर्थना से निरशेष हो जाता है ।
মত ২৫ ২? ১
নম चर न वि লী
जिस दिन पृथ्वी पर पतित्रवा का आस्तिंत्व नंहीं रहेगा,
उस दिन सूर्य, पृथ्वी और समुद्र अपनी-अपनी मर्यादा त्यायं देंगे |
५११ ৬২০ টন ২৭
শট ৫৬ ५४ गक
जो पुरुष परधन ओर परस्री से सदव यत्नपूर्वक वचेता'
रहता है, उसका कोई कुछ भी नहीं विगाड़ सकता ।
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तुम्हार घुतस्कर। का दुस्स्कार दवा देते ই श्रीर् तुम
गफूलत में पड़े रहते हा | हृढ़ता के साथ अपने; सुसंस्कारों की
रक्षा करो तो आत्मा की बह्त उन्नति होगी। `:
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