कालिदासमं नमामि | Kalidas Namami

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Kalidas Namami by भगवत शरण उपाध्याय - Bhagwat Sharan Upadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कविका विस्व १३ स्वामी वा अभिश्नाप फला-देश्व छूटा, नगरी छूटी काम- त्रो के मधुभरे विल्लौरी चपको के दौर चट, मदिर प्रभिसार छूटे, प्रमदवन श्रासाद छूटे, स्ववीया प्रिया छूटी, परकीया वाणिनो । कवि श्रमिशप्त, रामगिरिवामी यक्ष, मुलमी शिलाओो पर मेव की छाया देख डोला, फिर वोला-- सत्प्ताना त्वमति श्रएा स्त्पयोद प्रियाया * सदेश मे ह्र धनपतिकफोधविश्नेवितस्य ! गन्तव्या ते वसतिरलका नाम यक्षेश्वराणा बाह्मोद्यानस्पितहरज्चिरश्चन्द्रकाघोतहूर्म्या॥ सतप्तो के भुलसे हियो के, हे मेंघ, तुम शरण हो--इसीसे माँगता हूँ | याचना ठुकराशो नही--कुब्रेर के क्रोध से प्रिया से विछुड मुझ विरही का सदेश उस तक पहुँचाझ्नो | जाना तुम्हें यक्षेश्वरो वी नगरी उस अलका को होगा जिसके घवल प्रासाद निकटवर्ती उद्यान मे बसे शिव के सिर को चर्द्रिवा से चमकते रहते हैं । वाणी फूठ वहो, निर्वाध । “मेंधदूत' की अ्प्रतिम गीतिका श्रमायास रच गयी । मध्यप्रदेश की कतुओ का महारक्वका रूपायित हो चुका था। दक्षिण दिद्या ने पुकारा, विदिशा की « मालविका मच पर उतरी । उज्जयिनी की मालिनें कवि की आँखों चढी, विशाला की श्रगनाप्रो वा कुटिल अ,भग मर्म में चुभ गया । महाकाल की समाधि टूटी--नमेरु की डाली से चक्राकृत धसु तान कामनेक्पायको बेघ दिया, गजचर्म क्षत-विक्षत हो गया । तनुता खोकर भी श्रनग ने जो उन्‍्माद बोया शिव ने उसे गन्धमादन पर मारे-मारे फिर पौध-पौध, पोर-पोर काटा। कुमार- सम्भव हुआ । मायु पक चली थी, कैशावलि द्याम इवेत । प्रौढ की मने श्रिय उहक-डहव यलती है, अनस्फूट कलिका के प्रति वरिष स्परित हती है--जैसे श्रग्निमित्र वौ, मालविका कै भ्रति, शिव बी, उमा के प्रति, पुरूरवा की, किशोरी उवंश्ञी के प्रति, दुष्यन्त की




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