वेदार्थ दीपक निरुक्तभाष्य उत्तराध | Vedarth Deepak Niruktbhashya Uttradh

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Vedarth Deepak Niruktbhashya Uttradh by चंद्रमणि विद्यालंकार - Chandramani Vidyalankar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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३ ख० देवत-काणएड ४६५. किसी वस्तु फा प्रत्यक्षरुप में प्रतिपादन ऐ। और जहां, उत्तम युरुष या ध्र प्रादि का प्रयोग हो वहां जोवात्मा या परस्मात्मा को चची है-दसे प॒रणतवा ध्यान में रख लेना चाहिए 1 एवं त्वर्त! आदि का प्रयोग करते हुए प्रत्यक्षरूप में जड़ चेतन, दोनों का वणन होमकता हे | अतः, यह आवश्यक नहीं कि ऐसे स्थलों में केवश चेतन का ही प्रतिपादन दो, और जड़ पदाय का न द्वो । इस प्रसद्ध में रक दमटी बात पर भी ध्यान रखना चाहिए । बह यह कि ध्यमपुमप दा त्वम्‌, घुवाम्‌ , वयम््‌ , और उत्तमपुरुप का अहम , स्ावास , वयम्‌-इन में से किप्ती एक के साथ वचनामुसार नित्य संवनन्‍्ध है। নং) আহি कियी मंत्र में मध्यमयुरुप का प्रयोग हो तो वचनानुप्तार त्यम्‌? आदि में से क्रियी का, और यदि “त्यम्र! आदि में घे किसी का प्रयोग हों तो वचनानुपार मध्यम पुरुष का अध्याहार कर लेना चाहिये | इसी प्रकार उत्तमपुरुप ओर “अहम” श्ादि के बारे বলঙ্দিহ | 511 परोक्षकताः पत्यक्षझताश मंत्रा मृयिष्ठा अल्पश आध्यात्मिकाः । परोक्षकृत और प्रत्यक्षक्ृत मंत्र वहुत अधिक हैं, परन्तु आध्यात्मिक হী हैं। अर्थात, वेदों में तत््वज्ञान परोक्षरूप या प्रत्यक्षद॒प में तो अधिक पाया जाता है परन्तु आध्यात्मिक रूप में--अहम्भाव में-बहुत थोड़ा भ यहां पर वास्काचायं म्सद्भवश दिग्द- ১ ৯১ রি € ইং জঙ্গী के ध्रत्तिपाद्य विषय খল জী লী অহ वेदोक्त कतिपय प्रतिपादय ०2५28 ८४६ विपयों का निर्देश करते हें जिस से पाठक बेदों के स्वरूप को यर्किचित्‌ समभक्त सरकी-- ह ১ अथापि ल्तुतिरेव भवति হা । दन्य ड वीया. ; खि भरयाचम्र इति यथतसिन्सुक्त य्रथाप्याशरीर न स्तिः । छुचन्ता अहमक्तीभ्यं च सखेन छंभरु्कणषर््या श्यातव्‌ › इति । तदेतद्रहुलमाध्चयवं याज्ञपु च मंत्रेपु | अथापि शपथामिशापी । वा मुरीय यदि यातुधानों अस्पमि! धा स वीरेबशमिवियया! इति |




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