सामान्य भाषा विज्ञानं | Samanya Bhasa Vigyan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कि ভারি তে সত (ক তপন 1० সরস कन्न दै কি => चट ~ ( १५: ) (७२); ` (ख) -सम्बन्धतत्त्व काः अर्थंतत्व में * जुड़तर उसी का अंग हो' जाना (७३); (ग) अथं-तत्तव की ध्वनियों मे.कु परिवर्तन. कर देना (७३); (घ) अ्थंतत्त्व कौ ध्वनियो मे ध्वनिगुण का भेद कर देना (७३) ; '(ड) अर्थ-तत्व को अविकृत छोड देना ` (७४) ; (च) अर्थतत्त्व, को वाक्यांश. में विशेष स्थान पर ही. रखनी, (७४) । प्रत्येक भाषा उपरिलिखित.उपायों. में से एक. या अमेंक उपायों को 'ग्रहण करती है (७४-७५) । पद या, शब्द का प्राचीन (७५) तथा अर्वाचीन (७५-७६) लक्षण। ध्वन्यात्मक तथा व्याकरणात्मक शब्द (७६) ॥ : तेरहवाँ अध्याय--पद्विकास . .. ... .. . ..-पृष्ठ ७७....८८ वाक्य द्वारा उदबोधित अर्थ का विश्लेषण प्रत्येक भाषा में किन्‍्हीं धाराओं में होता है और ये धाराएँ सम्बन्धतत्त्वों द्वारा निर्धारित होती हैं, (७७) जो कि निम्नलिखित. भावों को प्राय: प्रकट करते हे--(क) लिंग, , पुंल्लिज्धू, सत्रीलिज्र और नपुंसक लिज्भ, पर इनका नेसर्गिक पुरुषत्वादि से-असम्बद्ध होना (७८) अचेतन व चेतन पदार्थ (७९-८०); (ख) वचन--एकवचनं, द्विवचन और बहुवचन तथा व्यक्तिवाचक या समूहवाच्क दाब्द (८०-८१); (ग) काल--वतमान ओर उसकी सहायता से भविष्य तथा भूतकाल (८१-८२); (च) प्रेरणाथ॑क आदि--संस्छेत के दस गण आदि (८२-८३) ; (ङ) वाच्य--- कतु, कंमं ओर भाव (८३-८४); (च) पद--पंरस्मैपद ` ओर आत्मनेपद ` (८४) ; (छ) वृत्ति (८४) ; (ज) विभक्ति--प्रथमादि ओर हिन्दी मेँ चिकारी तथा अविकारी (८४-८५) परसगं (८५) ; (ऋ) कारक (८६) । ये धाराएँ न ती नैसगिक हैँ न किन्दीं ताकिक सिद्धान्तो पर निर्भर. (८६) ; न' अटकं (८७) और न .सब भाषामों मे एक-सी (८७) । ध्वनिविकास की भति -इसका भी विकास अनायास ओौर अनजान में होता रहता हं (८८) ॥ ,. चोदहवां अध्याय--पदन्याख्या,.....,...-..पृष्ड ८९--९३ वेयाकरणङृत पद-व्याख्याएं (८९) अव्यय--विस्मयादि बोधक (८९), समुज्वयादि बोधक, परसगं और उपसर्ग (८९-९० ), संज्ञा और विशेषण में: मूंडतः अभेद (९०), संज्ञा और क्रिया मे भेद (९०-९१), व्यापायत्मक तथा संज्ञात्मक वाक्य में परस्पर भेदाभेद (९१) तुमंत और निष्ठादि-प्रत्यंकान्त झ्ब्दं (९१-०२) क्रिया को सबं के मूल में होना (९२); गुणवाचक অত আঁ उणादि' सूक मे सिद्ध शब्द (९२) शब्द की एकता (९३) ॥ . 0 ता “--पदविकास पदाविकास का कारण, .. . ..पृष्ठ , ९७-९४ एकरूफ्ता और अंनेकरूपता की प्रवृत्तियां, (९४); :अयत्न-लाघव+




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