जिनेन्द्र पूजन एक अनुचिंतन | Jinendra Poojan Ek Anuchintan

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Jinendra Poojan Ek Anuchintan by नाथूलाल जैन शास्त्री - Nathulal Jain Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(७) है, जिस सचे में पूज्य का जीवन ढला था । अतः निज के हितार्थं अविकल अविरल बढ़ने के लिए मुक्त स्वरूप पूज्य परमात्माओं की पूजा करना आवश्यक है । जो गृहस्थ जिनेन्द्र, पूजन किये बिना ही भोजन आदि अन्य कार्यो को करता है यह अनुचित है ।“ तथा उसके ब्रतादिका पालन श्रुत का अभ्यास आदि शुभ कार्यो का करना भी निष्फल है ।९ इससे स्पष्ट है कि श्रावक का प्रथम कर्म देव-शाख्र-गुरु की पूजा करने का है । उसे अवश्य करना चाहिए । उसे शिथिल करना योग्य नहीं है ९ उदेश्य - जिस प्रकार मनुष्य जीवन के लौकिक ओर पारलौकिक दो उदेश्य होते हैँ । उसी प्रकार गृहस्थ जीवन में जिनेन्द्र पूजन करने के आत्मार्थिक ओर आध्यात्मार्थिक,/ पारमार्थिक दो उदेश्य होते हैँ । | मनुष्य जिनेन्द्र पूजन आत्म शान्ति ओर आध्यात्मिक उन्नति के उदेश्य से करता है । उदेश्य की पूर्णता हेतु पूजक सवेग एवं वैराग्य मयी भावों के द्वारा अपने सहज स्वभाव में स्थिर रहकर भव से पार होना चाहता है ।** पूजक आत्म विशुद्धि की भावना से कार्यं परमात्माओं के गुणानुवाद कर अपने मे सम्याग्दर्शन ज्ञान एवं चरित्र प्रगट करना चाहता है ।*२ कह पूज्य परमात्मा के समान बनने की भावना से गुणानुवाद करता है ।९१ भगवान जिनेन्द्र की. पूजन करने में पूजक का उदेश्य कर्म के बंध का नहीं अपितु सर्व कर्मो के क्षय करने का है। पूजन की पीठिका में पूजक प्रतिज्ञा करता है कि मै केवल ज्ञान रूपी अग्रि




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