जैनधर्म मीमांसा दूसरा भाग | Jaindharm Mimansa Dusra Bhaag

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Jaindharm Mimansa Dusra Bhaag  by दरबारीलाल सत्यभक्त - Darbarilal Satyabhakt

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about दरबारीलाल सत्यभक्त - Darbarilal Satyabhakt

Add Infomation AboutDarbarilal Satyabhakt

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
ना सम्यग््ञान [ ३ ग्रक्यता मी दसीका नामदह। मे जिस ठेखनीसे छििरहादहं उस में कितने परमाणु है, प्रत्लेक्त अक्षके लिखने में उसके कितने पर- णु घिसते हैं, मैंने जे! भोजन किया उसंभ कितने परमाणु थे, ओर एक एकर देत के नीचे कितने परमाणु अयि आदि अनन्त काय जो जगत में हो रहे हैं उनके जानने से क्या छाम है ? उसका आत्ज्ञान से क्या सम्चन्ध है ? क्रिसी जैनेतर दार्शनिक ने ठीकही कहा है.--- स्व द्यतु व। मा वा तत्त्वमिष्ट तु पश्यतु । कीटस्यापशिज्ञिने तस्य नः कोप॑युज्यते सत्र पदार्थों को देख या न देखे परन्तु असूली तत्त्व देखना चाहिये। कीडों मक्नोर्श की संख्या की गिनती हमारे किस कामकी ? ~ तसमादुष्ठानगत ज्ञानमप्य विचार्यताम्‌। ..... प्रमाण दूरदर्ची चेदेते गृद्वानुपास्मह ॥ इसलिये कतेव्य के ज्ञानका ही विचार करना उचित है दूर- दी को प्रमाण मानने से तो गुद्धोंकी पूजा करना ठीक होगा। ये शेक यपि मजाक के गये है फिर भी इनमे जो सल हे बह उपक्षेणीय नहीं है । जो ज्ञान आलमोपयोगी ` है वही पारमिक ` है, सव्य है; उसी की, परमप्रकर्पृता केवलज्ञान या सवै है । ` ? ` सर्ङ्नता की परिभावा के विषयमे आज कर वडा श्रम, फैला हुआ है । सम्भवतः, महासा महावीर के समय से या उनके कछ पि से द्यी यह श्रम फैला हुआ ই जोकि धीरे धीरे और ५




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now