हिंदी साहित्य का आदिकाल | Hindi Sahitya Ka Adikaal
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6.52 MB
कुल पष्ठ :
144
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
हजारीप्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979) हिन्दी निबन्धकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म श्रावण शुक्ल एकादशी संवत् 1964 तदनुसार 19 अगस्त 1907 ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के 'आरत दुबे का छपरा', ओझवलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। इनके पिता पं॰ अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था।
द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई। उन्होंने 1920 में वसरियापुर के मिडिल स्कूल स
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रथम व्याख्यान
श्वंयम्मू का 'पडमचरिउ”, 'हरिवशपुराण” श्रादि पुस्तके प्राप्त हुई । उन्ही दिनो हिन्दी-जगत्
के सुगरिचित बिद्वान् पं० नाथूराम प्रेमी ने जेन-साहित्य-संशोधक नामक त्रेमासिक पतन में
'पुष्पदन्त और उनका महापुराण' नामक महत्त्वपूर्ण लेख लिखा । उन्होंने अपग्रश-अन्थो के
बारे में श्रौर भी कई महत्त्वपूरां लेख लिखे, जो झ्रब “जेन-साहित्य का इतिहास” नामक श्रन्थ
में सग्रहीत हो गए हैं | प्रेमीजी ने जसहरचरिउ, णायकुमारचरिड नामक दो श्रौर झपश्रश-
भ्रन्थ खोज निकाले । फिर प्रोफेसर दीरालालजी जैन ने कारजा के जैन-भाण्डार से कर-
कणडुचरिउ, सावयधम्म दोहा, पाहुड दोहा झ्रादि कई ग्रन्थों को खोज निकाला और
सम्पादित करके उन्हें प्रकाशित भी कराया । मह्दापंडित राहुल साकृत्यायन ने स्वयम्मू श्रौर
पुष्पदन्त की इस्तलिखित से संग्रद करके कुछ महत्त्वपूर्ण रचनाएँ अपने 'काव्यधारा'
नामक अन्य में प्रकाशित की हैं | इधर कई विद्वानों ने इस साहित्य का गभीर श्रध्ययन किया है
जिनमे श्रीमुनिजिनविजय, शझ्ादिनाथ उपाध्ये, डॉ० हीरालाल, डॉ० परशुराम वेद्य, प०
लालचन्द्र गान्धी, डॉ० जगदीशचन्द्र जैन श्रौर डॉ० अल्सडोफ प्रभुति विद्वानों के नाम विशेष-
रूप से उल्लेख-योग्य हैं | इन विद्वानों के परिश्रम से श्रनेक झपश्रश-अ्रन्थो का प्रकाशन हुमा है
श्रौर अरब यह नहीं कहा जा सकता कि श्रपभ्रंश का साहित्य एकदम लुस हो गया है ।
सन् १६५० ई० में श्रीकस्तूरचन्द कासलीवाल एम्० ए.० शास्त्री के सपादकत्व में
श्रामेर-शास्त्रमाणडार (जयपुर) के श्रन्थों का एक प्रशस्ति-सग्रह् प्रकाशित हुझा है, जिसमे
लगभग ५४.० अपनंश-प्रन्थों की प्रशस्तियोँ संगीत हैं। इनमे कुछ का तो विद्वानों को
पहले से भी पता था, कुछ नई हैं । इनमे स्वयमू , पुष्पदन्त, पद्मकीसिं, वीर, नयनन्दि,
भीघर, शरीचन्द, हृरिपेण, झमरकीर्सि, यशःकीर्सि, धनपाल, श्रुतकीरलि और माणिक्यराज
रदवू की कृतियों हैं । झधिकाश रचनाएं. १३वीं शताब्दी के बाद की बताई गई हैं,
पर उसके बाद भी १६वीं शताब्दी तक झपभ्रंश में रचनाएँ: होती रही हैं । इस प्रशस्ति-
संग्रह के रइधघू , यश.कीर्ति, धनपाल, शरुतकीरसि और माशिक्यराज चौदहवीं श्रौर उसके बाद
की शताब्दियों के कवि हैं ।
ये ग्रन्थ अधिकतर जैन-ग्रन्थ-मारढारो से ही प्राप्त हुए हैं शरीर श्रधिकाश जैनकवियों
के लिखे हुए हैं । स्वभावतः ही इनमे जैनघर्मं की महिमा बताई गई है और उस धर्म के
स्वीकृत सिद्धान्तों के ्याघार पर ही जीवन बिताने का उपदेश दिया गया है। परन्तु, इस
कारण से इन पुस्तकों का महत्त्व कम नहीं दो जाता । परव्ती हिन्दी-साहित्य के काव्य-रूप
के झष्ययन मे ये पुस्तक बहुत सद्दायक है । -
किन्तु यह नहीं समकना चाहिए कि जेंनेतर मूलों से श्रपभ्रश का साहित्य एकदम मिला
दो नहीं । सन् १६०२ ई० में ही चन्द्रमोइन घोष ने श्राकृतपैड्डलम” नामक छुन्दोविधान
के अन्य का सम्पादन समास किया था । इसका प्रकाशन बिब्लियोथिका इडिका सिरीज में
हुआ | इसमे बहुत-सी झपश्र श-कविताएँं उदाइरणु-रूप में सग्रद्दीत हैं । यद्यपि बहुत पहले ही
पिशेल ने इस पुस्तक में सगहीत कविताओं पर विचार किया था फिर मी दीर्घकाह तक पुराने
हिन्दी-साहित्य की झालोचना के प्रसंग में इस ग्रन्थ की उपेक्षा दी होती रही । बहुत बाद में
जाकर झाचाय रामचन्द्र शुक्लजी ने इस पुस्तक में संग्रहीत का उपयोग किया था ।
सन् १३२३ बगाठ्द्, अर्थात् सन् १६१६ ई० में मद्दामहोपा न्याय प० दरप्रसाद शास्त्री ने
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