भारतीय शिक्षा | Bhartiya Shiksha

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Bhartiya Shiksha by राजेंद्र प्रसाद - Rajendra Prasad

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about राजेन्द्र प्रसाद - Rajendra Prasad

Add Infomation AboutRajendra Prasad

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
विश्वविद्यालय ओर सामाजिक कल्याण ` रे के भाग पर किसी तरह का असर डाले बिना प्रत्येक नर-नारी. जो कुछ चाहेगा ले सकेगा । दूसरे शब्दों मे जीवन की श्रच्छी वस्तुग्रों को पाने के लिए जनसाधारण को ग्राकांक्षा की युति का साधन यही कान्तिकारी श्ञक्ति हं । किन्तु इस बारे में शंका के लिए गुंजाइश हैं कि इन दो ऋान्तिकारी शक्तियों का मेल उस सामाजिक चेतना द्वारा कराया जा सकता हे या नहीं जो श्राजकल मानवों के कार्यो का संचालन कर रही हुं} बहुत कृ सीमा तक यह चेतना सीमित सक्ति ग्रोर सीमित उत्पादन-युगकी पुत्रीहं । अ्रतः यह अनिवार्य-सा ही है कि जीवन के इन नये तथ्यो कं स्वाभाविक श्रौर निहति परिणामों को समशनं में यह्‌ श्रसफल सिद्ध हों । युद्ध ओर अभाव के प्रति वतंमान सामाजिक चेतना के रुख़ से यह आशंका ओर भी दृढ़ हो जाती है । श्राज भी इसे इस सत्य का भास हुआ प्रतीत नहीं होता कि इन दोनों का पूर्णतया अन्त करना ही सानव-जाति के बचाव श्रौर बने रहने की पहली झते हुं । अभी हाल तक युद्ध का अर्थ इसके सिवाय और कुछ न था कि कोई भी वर्ग या प्रादेशिक समूह किसी दूसरे वर्ग या राष्ट्र से अपने ऋगणड़ों को सुलभाने के लिए अपनी शक्ति का विध्वंसात्मक प्रयोग उनके विरुद्ध करे। ये लोग इस प्रकार के प्रयोगों को नि३शड्ूः होकर इसलिए कर सकते थे कि जिन वस्तुओं को वे मूल्यवान्‌ समते थे उनका सीमित शक्ति से सीमित विनाश हो हो सकता था। वेसे प्रयोगों से वे उन ध्येयों की पूर्ति कर सकते थे जो युद्ध द्वारा विनष्ठ होने वाली कुछ वस्तुओं से कहीं श्रधिक महत्त्वपूर्ण थे। इसके अतिरिक्त सीमित उत्पादन से जीवन की अच्छी वस्तुएँ इतने परिमारा में उत्पादित नहीं की जा सकती थीं कि सब लोग उनमे हिस्सा ले सके | भ्रतः व्यक्ति ओर समूह के लिए यह अनिवायं था कि वे ग्रपनौ चाहौ हुई वस्तुश्रों को दुसरे हिस्सा साँगने वालों के विरुद्ध हिसा का प्रयोग करके हथिया लें। दूसरे शब्दों में सीसित उत्पादन के युग सें सानवीय समूह का यह विचार था कि उनके सुखी जीवन के लिए युद्ध एक फलदायी साधन है । হুল গলা में विकसित सामाजिक चेतना का स्वभावतः ही युद्ध के प्रति इसके ग्रतिरिक्त और कोई दृष्टिकोश नहीं हो सकता था कि वह वांछनीय है और कम-से-कम सानव-जीवन सें श्रनिवार्य और श्रपरिह्वायं तो हुँ ही । युद्ध के बारे में यह रुख हमारे सामाजिक सन का ऐसा अविच्छित्त अंग बन गया हे कि केवल युद्ध के नाम को सुनते ही सहज में ही उसके प्रति घुणा का भाव उत्पन्न होने के बजाय अवेक सनुष्य जिनमे विद्वान और उच्च राजनेतिक पद धारण करने वाले भी सम्मिलित हैं उसे वर्गोय और राष्ट्रीय सतभंदों ओर भगड़ों को हल करने का प्रभावशाली साधन समझते हे और उसे संगठित सामूहिक जीवन का स्वाभाविक और निहित अंग मानते है । युद्ध के प्रति अपनी प्रकृति- जनित प्रतिक्रियाओं के कारण यह सामाजिक चेतना स्वभावतः ही इस श्रसीम शक्ति




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now