शैव मत | Shave Mat
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6.5 MB
कुल पष्ठ :
152
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रथम शष्याय क श्र देती है श्रतः यह उपमा भी शीन्र ही अतिशयोक्ति में बदल जाती है श्रौर रुद्र के समान ही सोम के भी गजन श्र रवण का उल्लेख होता हैं । सोम के इस गर्जन और रण के कारण ही सम्मवत उसको एक स्थान पर वृषभ की उपाधि भी दे दी गई है । रुद्र के स्वरूप की जो व्याख्या ऊपर की गई है उसकी पुष्टि इस बात से भी दोती है कि शऋग्वेदीय बूक्तों में बुद्ध का श्रग्नि से गहरा सम्बन्ध है। अग्नि को अनेक बार सदर कहा गयाहै । यह ठीक है कि श्रग्ति को रुद्र मात्र कहने का ही कोई विशेष अर्थ नहीं है क्योंकि ये सब केवल उपाधि के रूप में भी किया जा सकता है जिसका अर्थ है--ऋूर अथवा गजन करनेत्राला श्रौर इसी श्रथ में इस उपाधि का इन्द्र श्र अन्य देवताओं के लिए भी प्रयोग किया गया है । परन्तु एक स्थल पर यद्र को मेघापति की उपाधि दी गई है । इससे रुद्र और श्रब्नि का तादात्म्य कलकता है। यदि हम बुद्र को विद्युत् का प्रतीक मानें जो वास्तव में श्रग्नि ही है तो इस तादात्म्य को आसानी से समका जा सकता है । उत्तर- कालीन वैदिक-साहित्य में इस तादात्म्य को स्पष्ट रूप से माना गया है श्रौर फलस्वरूप सायलणाचार्य ने निरन्तर दोनों को एक ही माना है। रुद्र श्रौर श्रस्नि के इस तादात्म्य को ध्यान में रखते हुए हम शायद रुद्र की द्विवां जैसी उपाधियों का मी समाधान श्रधिक श्रच्छी तरह कर सकते हैं । इस शब्द का झनुवाद साधारणतय। दुगुने बल का अथवा दुगुना बलशाली किया जाता है । परन्तु इसका श्रधिक स्वाभाविक श्रौर उचित श्रथ बही प्रतीत होता है जो सायण ने किया है । श्र्धात्-- ट्यो स्थानयोः प्रथिव्याम् झन्तरिक्षे परिवृद्धः ये रथ विद्युत् पर पूरी तरह लागू होता है क्योंकि विद्युत् ही जब प्रथ्वी पर श्राती है तब अग्नि का रूप धारण कर लेती है । अथवा बहा शब्द का अर्थ यहाँ कलेंगी से हैं जैसा कि बहीं श्रर्थात् मोर में द्विबहां का अर्थ हो सकता है--दो कलैँगीवाला । इस श्रर्थ में इस शब्द का संकेत दुकांटी विद्युत् की श्रोर होगा । इस सम्बन्ध में एक रोचक बात यह हैं कि ऋग्वेद के प्राचीनतम भागों में दद्व और श्रग्नि का तादात्म्य नहीं है बल्कि उनमें स्पष्ट मेद किया गया है । इससे प्रतीत होता है कि विद्युत् के प्रतीक स्द्र श्रौर पार्थिव वह के प्रतीक श्रग्नि का तादात्म्य बैदिक ऋषियों को धीरे-धीरे ही शात हुआ था किन्तु एक समय ऐसा भी था जब इन दोनों को श्रलग-श्रलग तत्त्व माना जाता था । झद्र-न्श्रग्नि इस साम्य को एक बार मान लेने पर इसकी बड़ी सुगमता से ढद्रस्झअर्नि- सूर्य तक बढ़ाया जा सकता है श्र कुछ ऋग्वेदीय सूक्तों से ही प्रतीत होता है कि उस समय भी र्द्र श्र सूर्य के इस तादात्म्य को ऋषियों ने पहचान लिया था। इससे हमें १. ऋग्वेद € पद ९ है १ हे €५ ४ इत्यादि । प् कर है ७ डै। ई.. . ४. रे रै ६ है रे + ५ भा दे १ ंडे ई। न . ४ १ ११४ ६ पर सायण की टीका ।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...