जयद्रथ - वध | Jayadrath Vadh

Jayadrath Vadh by मैथिलीशरण गुप्त - Maithili Sharan Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम सगे श्५ उस एक ही झभिमन्यु से यों युद्ध जिस जिसने किया मारा गया अथवा समर से विमुख होकर ही जिया । जिस भॉति विद्यद्दाम से होती सुशोमित घन-घटा सर्वत्र छिटकाने गा बह समर में शखच्छटा ॥ तब कण द्रोणाचाय्य से साश्चय्य यो कहने ठलगा-- ाचाय देखो तो नया यह सिह सोते से जगा रघुवर-विशिख से सिन्धु-सम सब सेन्य इससे व्यस्त है यह पाथं-नन्दन पाथ से भी धीर वीर प्रशस्त है होना विमुख संग्राम से है पाप बीरो को महा यह सोच कर ही इस समय दहरा हुआ हूँ से यहाँ। _ जैसे वने अब मारना ही योग्य इसको है. यहीं सच जान छीजे झन्यथा निस्तार फिर होगा नहीं ॥ + चीराप्रणी असिसन्यु हुम हो धन्य इस संसार में हैं शन्ु भी यो सम्न जिसके शौय्यं-पारावार में । होता तुम्हारे निकट निष्प्रभ तेज शशि का सूर का करते विपक्षी भी सदा शुण-गान सच्चे शूर का ॥ तव सप्त रथियों ने वहाँ रत हो महा दुष्कर्म में-- मिल कर किया छारम्भ उसको विद्ध करना मम सें-- कप कर्ण दुःशासन सुयोधन शकुनि सुतत-युत ट्रोण भी उस एक चाठक को छगे वे सारने वह विघ सभी -




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