दो कदम सूर्योदय की ओर | Do Kadam Suryoadya Ki Aur  

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दो कदम सूर्योदय की ओर / 9 २. शाश्वत्‌ सुख का मार्ग : आत्मानुशासन दुःरव की मूलभूत अवस्था अविद्या से आरोपित होती है। और अविद्या में ही उसका केन्द्र होता है। अविद्या का व्यापक एवं विराट्‌ रूप व्यक्ति देरव नहीं पाता तथापि वह सर्वांगीण होती है एवं आत्मा के एक देश को ही नहीं, सभी आत्म-प्रदेशों को आच्छादित किये रहती है। आगम का भी उद्घोष है- “सव्वं सब्वेण बंधई | आत्मा के प्रत्येक प्रदेश से उसका संबंध होता है। प्रभु महावीर ने कहा है- अप्पा कत्ता विकत्ता य' अर्थात्‌ आत्मा ही कर्ता हे, भोक्ता हे । अविद्या की स्थितियों को दूर करने के लिए उत्क्राति भी आत्मा ही करती है। यदि वह उत्क्रौति सफल हो जाय तो आत्म-उत्थान का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। परन्तु यदि सफल होने की स्थिति नहीं बन पाये तो आत्मघाती स्वरूप भी बन सकता हे | इस दृष्टि से प्रभु महावीर का प्रदेय अत्यंत महत्त्वपूर्ण रहा है। उन्होंने उत्क्रान्ति का अत्यंत विशिष्ट रूप उद्घाटित किया ओर युग को नया संदेश दिया । एसा वह युग था, जिसमें यह मान कर चला जा रहा था कि- ईश्वर की आज्ञा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता | ईश्वर को एक सत्ता के रूप में स्वीकार किया गया था ओर इस प्रकार प्रकारान्तर से यह उदृघोष किया गया था कि आत्मा ईश्वर नहीं बन सकता, वह सदा परतंत्र हे, ईश्वर की इच्छा के बिना वह कुछ नहीं कर सकता । एसे युग में प्रभु महावीर ने प्रत्येक आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व का बोध कराने वाला दर्शन प्रतिपादित किया उन्होने स्पष्ट किया- आत्मा ही कर्ता-भोक्ता हे तथा दुःख या कष्ट ईश्वर-प्रदत्त नही होते। ईश्वर के कारण भी कुछ नहीं होता । जो कुछ होता है, उसके तुम स्वयं ही, करने वाले होते हो | जैसा कर रहे हो, वैसा भोग भी तुम्हें ही करना है।




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