वीर-सन्देश | Veer - Sandesh

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Veer - Sandesh by महेन्द्र - Mahendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अहु१] महाकवि भूषण भौर छत्रपति रिषाओी দহ ए 11 साथ रद्दी और उन्हीं के साथ चली गयी; पर इस भूतल पर अपना सजीष चित्र छोड़ गयी, जो उसका और उसके पति-भूषण--का नाम सदा स्थिर रक्खेगी | भूषण की कविता मे भूषणो की सजावट वित्त को भावित करती है, ्ोज गुण में चित्त तन्मय हो आता है, जिसक। व्यज्जन सब जगह गौडी रीति बिलक्तण रीति मे करती है । शिवाजी से औरंगजेब भेंट करता है । भेंट करने से पहले इसका चित्त कैसी घबड़ाहट में है, उसने कैसी-केसी तैयारियाँ की हैं और फिर भी गुसलखाने में ठिठकता है। ये सब इस दिल्‍ली के बादशाह की बातें हैं; पर मारे छत्रपति के पास कोई हथियार भी नहीं | शेर किसी हथियार के बिना द्वी बढ़े बड़े मत्त मतड्ों को विचलित कर देता है। देखिए, भषण जी की फड़कती তই শক্তি में इस चित्र को;-- कैयक हजार जहाँ शु्ज॑बरदार ठाढ़े, करि के हुस्थार नीति पकरि समाज की। राजा जसवन्त को बुलाय के निकट राख्यो, तड लें नीरें जिन्हें लाज स्वामि काज की ॥ भूखना भनत ठिठकत ही गुसलबाने, विह लौ कपट सुनि साहि महाराज की । हटकि हथियार फड़ बाँघधि उम्ररावन की, कीन्ही तत्र नौरंग ने भेंट सिवराज की ॥ कहिए, फेसा खाका खींचा है। वाह ' मद्ाराज़ की चढ़ाई का दाल सुनिए :- बहल न दादि दल दच्छिन वमंड माहि घटा जू न होदिं दल सिवाजू शारी के। दामिनी दमक नादिं खुन खग्ग बीरन के, बीर सिर छाप लख तोजा असवारी के ॥ देख देख भुगलों की हरमें मवन स्ये, उमक्कि उम्रकि उठें बहत बयारी दे ।




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