इतिहास लेखमाला | Etihasik Lekhmala

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सिंह शब्द [3 के शिला लेख में मिलता है तथा 'सिंह' शब्द लगने लगा । मारवाड़ (जोधपुर) के राठौड़ राजाओं के नाम के आगे तो 17 वीं शताब्दी में राव रायसिंह राठौड़ (1688-40 वि०) से 'सिंह शब्द लगने लगा । बाद में तो इस तरह के नामों का राठौड़ों में खास तौर से प्रचार हुआ । मुगलकाल में अधिकाधिक प्रचार मुगलकाल में 'सिंह' शब्द का प्रचार बढ़ा और राजपूतों के सिवाय अन्य जातियां भी इस शब्द का प्रयोग करने लगीं । 'सिंह' शब्द अब उपाधि नहीं रहा । सिंह का अर्थ अब श्रेष्ठ (सिंह के समान) था, यह भी लोग भूल गये । 'सिंह' से सम्मान और बहादुरी का अर्थ समझा जाने लगा । एक तरफ मुगल और यवन अमीर उमरा, फौजवक्षी, सिपहसालार जंग वगैरा अपने नाम के आगे 'खान' लगाते थे वहाँ हिन्दू वीरो ने अपने नाम के साथ 'सिंह जोड़ना आरम्भ किया। सिक्खों के दसवें कांतिकारी गुरू गोविन्दसिह्‌ (वि० सं° 1722 से 1765) ने तो अपने पन्थ (दल) के लोगों के अन्त में सिह शब्द अनिवायं रूप से लगाया । यही रिवाज आज तक सिक्ख सम्प्रदाय मे चला आता है ओर वे लोग चाहे जाट, राजपूत, कलाल (অনুজ वालिया) आदि से हरिजन (चमार, मोची, मेहतर आदि) तक ह तव भी 'सरदार' कहलाते ओर नाम के अन्त मे सिह शव्द जोडते हँ । सारांश यह्‌ है कि पंजाव के सिक्ख ओर राजपूतान के राजपूत क्षत्रियो में.18 वीं सदी से “सिहे' शब्द का प्रचार वडा । इसे यथानाम तथा गरुण की उक्तिके अनुसार वीरता का पोषक समभकर दूसरी कौमों के व्यक्ति-विशेषनेभी सिह' शब्द लगाया । जैसे जोधपुर के महाराजा अजीतसिह राटौड (वि° सं० 1768 से 1781) के दीवान द्ष्धी वाले कायस्थ (पंचोली) केसरीसिह भामरिया, महाराजा अभयरसिह्‌ राठैड (वि० सं० 1781 से 1806} के कामदार (दीवान) ओसवाल वंश्य रतनसिह भण्डारी आदि । 19 वीं शताब्दी के आरम्भ में राजपूताने के उदयपुर, जोधयुर और जयपुर राज्यों ने इस “सिह्‌' शब्द को विशेष महत्व देकर राजपूर्तो के सिवा अन्य वणे के उच्च राजक्मचारियों को भी इस शब्द से वंचित कर दिया और जो कोई उपयोग करता उसकी वडी खोज खाज कौ जाती थी। यही नहीं शुद्ध राजपूतों मे भी यदि राज्य किसी को राजद्रोही, गहार (वागी) या ` निम्न श्रेणी (खवास या पासवान) मे करारदेदेतातो उसे व उसके वंशजो को भी राज्य के रेकार्ड (कागज पत्रों) में (सिह' शब्द नहीं लिखता था और उसे नाम के अन्त में 'करण' आदि लगाने को वाध्य करता था ।




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