गुरुकुल पत्रिका | Gurukul Patrika
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1 MB
कुल पष्ठ :
38
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)गुझुकुल-पत्रिका जनवरी, १६६५२
प्रस्तुत मन्त्र में गौ को रुद्रों की माता,वसुओं की
पुत्री तथा ग्ादित्यों की स्वसा कहते हुए अमृत
की नाभि कहा गया है। श्रतः वह सर्वथा शुद्ध
पाप रहित है और उस्को कभो भी कष्ट नहीं
देना चाहिए 1 प्रस्तुत मन्त्र में गो को जिन तीन
रूपों मे देखा गया है उनका विशद विवेचन
ईस प्रकऊ'र कर सकते हैं ।
माता रुव्राशामं-गौ रुद्रों कौ माता है, यह
भ्र्थ जान लेने पर स्व प्रथम रुद्र के वास्तविक
भ्र्थ को जानने वी उत्क्ट इच्छा होती है । रुद्र
शब्द की उत्पत्ति रुद्धातु से भानी जाती है,
जिसका अर्थ रोना होढा है। 'शत्तपथ ब्राह्मण
मे इस रद् घातु फो ही आधार मानकर रुद्रकब्द
की ब्युत्पत्ति निभ्त प्रकार की गई है ।
तद् यद्ू रोदयन्ति तस्मात् रुद्रा. पर्थात्
जो शलाने का फार्य करते है, उन्हे रुद्र कहते है ।
कही २ शरीर के १०। ण को भी হল লী
संज्ञा से बोधित किया जाता है। उसका
प्रभिप्राय भी यही है कि!शरीर से निकलते हुए
मे प्राण प्रत्यधिक पीड़ा देते हुए छलाते का कार्य
करते हैं, श्रत: रुद्र कहाते है। वेदों मे परमात्मा
को भी रुद्र कहा गया है, क्योंकि बह भी जब
अशुभ कर्मों का फल देता है, तब पापियों को
रुलाता है। इस प्रकार रद्र का यौगिक अ्रर्थ
'इलाने वाल।' हो जाने से राष्टू के दण्डझाधिकारी
अथवा न्यायाषीस कोभीहम रद्र कह सकते हैं ।
हमारी इष्टि में प्रस्तुत यो सम्बन्धी मन्त्र में रुद्
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का अर्थ दण्डाधिक्रारी लेना श्रधिक उपयुक्त रहेगा ।
इन दण्डाधिकारी रुद्रों की गौ माता किस प्रक्तार
है, इसकी संगति हम निम्न प्रकार लगा सकते हैं।
दण्ड देने वालों के लिए दो बातों की आक्ब्यकर्तो
होती है। प्रथम ता दण्डाधिकारी को पूर्ण सामर्थ्य-
बावू एवं शक्तिश,ली होना चाहिए; क्योंकि शक्ति
के अभाव भे बह दुष्टो को दण्ड न दे सकेगा ।
और यदि दण्ड दिया तो स्वयं हो दुष्टों द्वारा
मार खा जायेगा । दूसरी बात यह है कि उसे
करता से रहित होकर दबालु भी होना चाहिए
क्योकि क्ररता से श्रोत प्रोत होने पर उसे यह
विवेक नही रहेगा कि किसको क्रितना दण्ड देना
है! फिर तो बह हिसक होकर कम अपराध वाले
को भी सीधा मृत्यु के मुख में पहुंचा देगा । दण्डा-
धिकारोमे राम के ग्रुणों की प्रावश्यकता है,रावण
के नही, दण्डाघिकारी बलिष्ठ और दयालु कैसे बने
यह बिचारणीय है क्योंकि बल का संबन्ध शरीर से है
और शरीर को पुष्टि भोजन के आधार पर होती है
और भोज्यान्त के प्रनुसार ही मन का विकास
होता, अत, भोजन का मनोमयी वृत्तियों पर पूर्ण
प्रभाव पडता है। कुछ भोजन ऐसे हैं, जिन से
शरीर पुष्ट हो सकता है, किन्तु मनोबवुत्ति ऋर हो
जाती है। जंसे--मांस आदि । कुछ भोजन ऐसे
है जिनके मनोवृत्ति श्रति मृदुल होगी, किन्तुक्ञरीर
पणंतया परिपृष्ट एवं शक्ति से भरपूर नहीं होगा
अतः दोनों ही भोजन अपूर्णा हैं। तो फिर किस
भोजन में ऐसे तत्व हैं, जो शरीर को बलिष्ठ करें
और मन को भी पवित्र करें । इस के उत्तर में
लगभग सभी प्रबुद्ध डाकटरों को कहना है कि गाय
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