नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण | Naitikta Ka Gurutvakarshan

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Naitikta Ka Gurutvakarshan by मुनि नथमल - Muni Nathmal

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मुनि नथमल जी का जन्म राजस्थान के झुंझुनूं जिले के टमकोर ग्राम में 1920 में हुआ उन्होने 1930 में अपनी 10वर्ष की अल्प आयु में उस समय के तेरापंथ धर्मसंघ के अष्टमाचार्य कालुराम जी के कर कमलो से जैन भागवत दिक्षा ग्रहण की,उन्होने अणुव्रत,प्रेक्षाध्यान,जिवन विज्ञान आदि विषयों पर साहित्य का सर्जन किया।तेरापंथ घर्म संघ के नवमाचार्य आचार्य तुलसी के अंतरग सहयोगी के रुप में रहे एंव 1995 में उन्होने दशमाचार्य के रुप में सेवाएं दी,वे प्राकृत,संस्कृत आदि भाषाओं के पंडित के रुप में व उच्च कोटी के दार्शनिक के रुप में ख्याति अर्जित की।उनका स्वर्गवास 9 मई 2010 को राजस्थान के सरदारशहर कस्बे में हुआ।

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नेतिकता का आधार मनुष्य और [मानस दोनों ,भिन्‍न, साथ ही अभिन्‍न भी हैं। मनुष्य इसीलिए भहिमाशाली है कि उसका मानस विकासशील है ¦ उसमें चिन्तन है, चकंणा है, ऊहापोह ओर गवेषणा है । मन ने जो उपलब्ध किया, उसमें अनुपलन्ध अनन्त है, फिर भी उसका रहस्योद्घाटन मन ने बड़ी पटुता से किया है । वह्‌ केवल पौद्‌गलिक जगत्‌ की शल्य-चिकित्सामे ही कुशल नहीं है; आन्तरिक मर्मोद्घाटन भी उसने बहुत्त प्रभावक पद्धति से किए हैं। अध्यात्म उन्हीं में से एक है । नेतिकता उसी का प्रतिबिम्ब है । हमें जो ज्ञात है, वह सत्‌ है। जो सत्‌ है, वह अनादि-अनन्त है। जो है, वह था भी और होगा भी । जो नहीं था, वह होगा भी नहीं और है भी नहीं । इस तक॑ दृष्टि से हम किसी भी सत्‌ को शाइवत मान लेते हैं। पर जो है, वह इसी रूप में था और इसी रूप में होगा, यह आवश्यक नहीं । इस रूप-परिवर्तन की दृष्टि से हम किसी भी सत्‌ को सादिसान्त मान लेते हैं। निष्कर्ष की भाषा में इतना होता है कि सत्‌ शाश्वत है, रूप अक्ञाइवत्त । शाश्वत सत्‌ अभिव्यक्त नहीं होता । शारवत ओौर अशादवत दोनों अवि- भक्त होते है, तव सत्‌ व्यक्त होता है। इसी दाशेनिक भित्ति पर हम अध्यात्म और नैतिकता का विमर्श करना चाहते हैं। अध्यात्म सत्‌ है और शारवत है, नेतिकता उसका रूप है, अशादवत है। अध्यात्म स्वयंभ्र है, नैतिकता परस्पराध्ित है । कंम्त्रिज प्लेटोनिदट्‌स का नेता कडवथं नैतिकता के अस्तित्व को वस्तुगत मानता था 1 उसके अभिमत में नैतिक विभक्तियां पदार्थ के आन्तरिक गुणों की सूचक हैं। इस मान्यता में कुछ तथ्य भी है और कुछ चिन्त्य भी । चिन्त्य इसलिए कि कुछ नैतिक विभक्तियां मान्यता- निर्भर भी होती हैं। अध्यात्म से प्रतिफलित नैतिकता निश्चित ही सहज होती है। पर नैतिकता का विचार, जो बौद्धिक होता है, वह असहज भी होता है। निर्णायक बुद्धिवाद के क्षेत्र में निर्णायक ज्ञान प्रमाण होता है,




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