जीवन - यात्रा | Jeevan - Yatra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ जीवनयात्रा बिवाह आ गया. उसमें वह गई, मेरी माँ भी गई', और मैं भी गया. वहाँ पंक्ति भोजमें मुमसे भोजन करनेके लिये आग्रह किया गया. मेंने काकाजीसे कहा कि यहाँ तो अशुद्ध भोजन बना है. में पंक्तिमोजन में सम्मिलित नहीं हो सकता.” इससे मेरी जातिवाले बहुत क्रोधित हो उठे, नाना अवाच्य शब्दोंसे मैं कोसा गया. उन्होंने कद्दा--'ऐसा आदमी जाति बहिष्कृत क्यों न किया जाय, जो हमारे साथ भोजन नहीं करता किन्तु जैनियोंके चौकोमें खा आता है. मैंने उन सबसे हाथ जोड़कर कटद्दा कि आपकी बात स्वीकार है, ओर दो दिन रहकर टीकमगढ़ चला आया. वहाँ आकर में श्रीराम मास्टरसे मिला. उन्होंने मुझे जतारा स्कूल का अध्यापक बना दिया. यहाँ मेरी जैनधर्ममें और अधिक श्रद्धा बढ़ने लगी. दिन रात धमंश्रवणमें समय जाने लगा. संसारकी असारता पर निर- न्तर परामश होता था. यहां कड़ोरेलालजी भायजी अच्छे तत्त्व- ज्ञानी थे. पूजनके बड़े रसिक थे. में कुछ कुछ स्वाध्याय करने लगा था ओर ग्वाने पीने के पदार्थोंफे छोड़ने में ही अपना घर्म सममने लगा थ।. चित्त तो संसार से भयभीत था ही. एक दिन हम लोग सरोवर पर भ्रमण करने के लिये गये. बहाँ मैने भाईजी साहबसे कहा 'कुछ ऐसा उपाय बतलाइये जिस कारण कर्मबन्धन से मुक्त हो सक .! उन्होंने कद्दा--/उत्तावली करने से कर्मबन्धनसे छुटकारा न मिलेगा. मैने कदा--'श्रापका कना ठीक दे परन्तु मेरी स्री और माँ हैं जो कि वेष्णवधमं की प्रलनेवाली है. मैंने बहुत कुछ उनसे झाग्रह किया कि यदि झाप जैनधर्म स्वीकार करें दो मे आपके:




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