गुप्ता जी की काव्य - धारा | Guptaji Ki Kavya Dhara

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Guptaji Ki Kavya Dhara by गिरिजादत्त शुक्ल - Girijadatta Shukla

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गुप्तजी की काव्य-धारा ११ होती है, हमें भी ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि कुरुचि प्रतिष्ठा के आवरण को प्राप्त कर अनुरज्ञित न हो जाय.। अपने इस प्रयत्न मे हमारा आक्रमण कुरुचि पर होना चाहिए, न कि कुरुचिपूर्ण व्यक्तियो के चरित्र पर । साधु समालोचना का यही आदर्शं समाज का कल्याण कर सकता ই। एक वर्तमान हिन्दी लेखक का निम्न-लिखित कथन सर्वथा सत्य हेः-- “साहित्य के विकास मे समालोचना का स्थान बहुत ऊँचा है। साहित्य सामाजिक सुकर दै । इसमे समाज की माव-धाया प्रति-फलित होती है | श्रतएव साहित्य के बिना फिंसी उन्नति-कामी जाति का काम नही चल सकता | साहित्य को भली-भाति जाग्रत करते के लिए समालोचना अपरिहार्य हे । “समालोचना रचनाओ के गुण-दोषों को दिखाती है, उनको विशुद्ध सुन्दरता देने का पथ-निर्देब करती है, अच्छे प्रस्तावों के द्वारा उनकी अग्रगति सूचित करती है, विश्लेषण और अमभिमत के प्रकाश द्वारा अच्छी स्चनाओ को सजीव कर देती है} इस लेखक की निम्न-लिखित पक्तियाँ भी उक्त पंक्तियो ही की तरह निविंवाद हैं-- ' “समालोचक होना अत्यन्त कठिन है। समालोचक वही हो सकता है जिसके भाव और दृष्टि में समता आ गयी हो, जो रस और भाव को सर्वथा अपना चुका हो--जो रस और भाव के उस केन्द्र पर पहुँच गया हो जहाँ से सब रस एक से आनन्द-प्रद दिखने लगे, अर्थात्‌ जो साहित्य-क्षेत्र मे उस पूर्णावस्था को प्राप्त कर चुका हो कि उसमे द्वेष कालेश न रहे। केन्द्र कहते भी उसी स्थान को हैं जहाँ से परिधि का प्रत्येक विन्दु समान अन्तर पर हो | अस्तु। मित्र एवं মাল, को सम दृष्टि से देखने वाले बहुत कप्त हैं। अतः कवि हो या आलोचक, यदि वह समता के उस केन्द्र पर पहुँचने की चेष्ठा भी करता रहे तो उसकी तूटियों क्षम्य होती हैं। जो मुझ जैसा दूसरा नहीं,” के सिद्धान्त पर




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