ओम वेद अर्थर्ववेद | Om Ved Athrvaved
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
60 MB
कुल पष्ठ :
462
श्रेणी :
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No Information available about क्षेमकरणदास त्रिवेदी - Kshemakarandas Trivedi
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अथवेवेदमाताभाध्वे प्रथमं काण्डम् ९
कीन
पदार्थ--[ ललाम्यत्त “>+भौम् ) | धते | रवि हटानेवाली ( निल-
क्षम्यभू ०--पंमीम ) प्रत्कमी [निर्धलता] भौर (भ्रालिम) शत्रुता को वन
भसि- ०--स') हम निकाल देते, (हाथ) ओर (প্রা-ঘালি) আ ग्रा - )
भगल है ( तानि ) उनको (कः) प्रपनी (न प्रजा के लिए ( भरातिम् ) सुख्रन
देनेहारे शत्रु से (सयामसि: '०--स.) हम॑ सवं ।1१॥ ।
সাআাজ--াজা ঘন ীত সুজা জী লিলা সাজি ভয় क्रो मिदटवे रौर
शत्रु को दण्ड देकर प्रजा मे आनत्द फैलाब ॥१॥ '
निररंणिं सबिता सविषत् पदीर्नि्स्तयोदर॑णी भिभरौ प्र॑पमा |
निरस्मस्य मनुमती ररोणा प्रमां देगा असादि) सौदगाय ॥२॥
पदां (सक्ता) [सवका पलानि हारा] मूर [ प কতা गिजभ्वी | (बरत)
समके आने योग्य जल | जल समान सान्त स्वाय | ( भित्र ) তো ইল মাত
वायु [वायु समाने वेगवान् उपकारी], ( चर्यमा ) शरष्ठो का भामं कमे हारा न्याय
कारी राजा { মা ) पीडा को (षयोः) दोनो पदो भ्रौर ( हस्तयो } दोनो हाथो
से ( 4 मिरन्तर (सि. साविबत) निकाल देवे । (रशा) इनणीला (धनुमतिः)
प्नुक्कत ভরি { भस्बभ्यम् ) हमारे किए (निः-- निः साकिषस् ) [पीड को] सिकालं
देवे, ( बेवा- ) उदार चिसवाल १ ने ( इमाम् ) इस [प्रमुक्ुल बुद्धि ] को
( सौभगाय ) बडे ऐश्वर्य के लिए भ्र भरसाविषु ) भेजा है ।२॥
भोषार्भ--मत्रोक्त दुभ सक्षणो वाना राणा और प्रक्ला परस्पर हितबुद्धि से
9 शुभचिन्तक महात्माओो के सहाय से फ्लेशो' का नाश केरके सथककी ऐश्वर्य
बढ़ायें ॥1२।। ।
य्त अात्मनि तन््दां घोरमस्ति यहा केशेपु अतिरुक्षंपे वा |
घव तद् बाचाप॑ हन्मो बय॑ दुवस्त्वां सविता छंदयतु ॥ ३॥
पदार्थ---| है मनुष्य ! ] [ ब्रह ) जो कुछ (ते) तेरे ( परात्मनि) ग्रात्मा मे
प्रौर ( तसबाम् এ रीर में (बा) स्थवा (মল) ज, वृढ ( केकोषु ) কফ में (वा)
সঘনা ( प्रतित्रक्षसे ) दृष्टि मे ( घोरम ) भपानक ( प्रस्ति ) है। ( बद्रम ) हम
{ तत् सर्म ) उस सदव (शाका) वारी मे [विद्यय से | (ष) हटाकर (हष्भः)
मिटाय देते है । (देव ). दिव्य स्वरूप (सतिता) सवंप्रेक परमेश्वर ( छवा ) तुभको
( सृष्षयतु ) प्रगीकोर करे 11811 | ॥.. *
भत्वाध--जब भमुष्य अपने श्रात्मिक झौर शारीरिक दधुर ५१०५५
को विद्वानों के उपदेश भौर संत्सग से छोड देता है, परमेश्वर वा
सामथ्यं देता भौर पामन्दिति करता है ॥३।।
रि्य॑पदीं शषदतीं गोपेषां विधमामृत ।
बिलोटध लास्यं १, वा भअस्मभाशयामपि ॥४॥
पथा्थ--( रिश्यपदीम् ) हरिण के समान [ জিলা জলাম सी } पद की
ঈছতা, বরন বল कै समान दात चवाना, ( गोषेषाम् ) नेन को सी खाल,
उत) प्रौर ( विधान् ) बिगड़ी भाथी | धोकनी ] ক समान श्वास क्रिया,
ललाम्यम् - ०--मीस्) रचि नाण करने हारौ (विलोढघम् ०--दिम् ) चाटने की
बुरी प्रकृति, ( ता ) इन सब [कृक्षेष्डाशो] को (झर्मतू) भफ्ते से (शाक्बाससि-
०---भ ) हम नाण कर् ॥४।
भवा्थं--स स्त्री पुरुष अनुष्यस्वभाव से विरुद्ध कुचेब्टाओ को छोड़कर
विद्वानों के सत्सज़ से सुन्दर स्वभाव बनावे श्रौर मनुष्यजन्म को सुफल करके प्रानन्द
বা 0181)
छी पुम् १६ की
१४ ब्रह्मा । ईश्वर, ( इम्ः, २ मवुष्येपव ३ स्व., ४ देद्य. ) |
अवुष्टूप्ः २ पुरस्ताइूबृद्ठती, २ पश्यापकितः ।
मा नो विदन् विव्याधिनों सो अभिव्याधिनों विदन् |
आाराष्टरव्य। भ्रस्मद् बिपूंचीरिन्द पातय ॥ १॥
लक्षणों
झनंक
पदार्थें--( विध्याधिन.) प्रत्यन्त बेधने हारे शभु (बः:) हम तक (भा ফিবদু) ,
कभी से
न पहुँखें, भौर ( মিমির, ) चारो झोर' से मारन होरे!! দা
पहुँचें। ( इस्त्र ) है परम ऐश्वर्य वाले राजन ( विज. ) , सत्र श्रोर फलि हुए
(करव्या: ) बारां समूहों की (प्रत्मत) हमसे प { सतय ) गिरा ॥१॥
लाचार्भ---सर्व रक्षक जगदीश्यर पर धूर्ण श्रद्धा, करके तुर सेनापति
सेनो की रखक्षेत्र मे इस प्रकार छश्च करे हर ज्ञोग पास न भ्रा' ৯৯০,
उसके प्स्त-शस्त्ों के प्रहार शफ्ने' किसी के पे ।(१॥)
दिप्वंड्दो भ्स्मस्करंद! परन्तु ये शसा पे भार्याः ।
देवीमलुप्पेषवों ममामिन्राद् वि. बिंध्यत ॥ २॥
। पधे (ये) णो कार डे भये |
জী (লাকা: ) ভীয় ৯ 1 পা মর कद (
चारा ( श्तु ) हमसे [7] ( पतु ) गिरे । (ब्रेश्नोः मनुध्येवतरः ) हे [
और ( ये ) 4
০০১১১
मनुष्यो के दिव्य बाग । [ सारण चनाने बसे तुम } ( मम) मेरे {( গ্মিক্গানু )
पीडा देने हारे शज्रुझ्रो ( चि विध्यत ) घ्यद हारा ।:२॥
भाषाधं--सेनापति इस प्रकार भ्रपनी सेना का व्यूह करे भि णथुश्रो कै प्मगन-
शस्त्र जो चन चुके है श्रथवा चलें वे सेना के न लगे श्ौर उस निपुणा मेनापति के
योद्धारो (বনী ) दिव्य अ्रथया आग्तय [प्रर्ति बाण | গ্পাণ আফতীঘ [আল রাঙা জী
অন্তু গাহি অল में वा जले से छोडे जायें| परत भुभ्रो को निरन्तर छव शने ।२॥
यो नः सवो यो भरणः सजञात उत निष्टधों यो अश्माँ अंभिदाप॑ति |
रुद्रः परब्यंय तानू ममाभिश्रान् वि विध्यतु | ॥
पदा्ं--(य } जो (न ) हमारी ( स्व ) जाति वाला अथवा ( ये. )
जो { इष्ण ) न वालिने योग्य त्रु वा विदेशी, प्रथत्रा { स्ना ) कुदुभ्वी ( उत)
मरवा ( मं) जो (निष्ट्य );, वर्णसङ्कर नीव ( श्रस्माम ) हम पर { स
शढ़ाई करे ( रक्ष ,) शत्रुओं को हलाने काला महा शूरवीर सेनापति ( शा
बारो के समूह से ( মদ ) मेरे ( एसासू ) इन (झ्रभिधान्) पीड़ा বল हारे ये
को (जि विध्यतु) छेद डाले ३५
भाषार्ध--राजा को अपने धोौर पराये का पक्षपात छीडकर दृष्टो को अश्ो-
वित टगत्र देकर राज्य में शान्ति रखनी लाहिए ।1३।।
यः सपनो यो5संपत्नो यश्च डिपतू छपांति ना |
देवास्तं स पूर्वन्तु बकच वमे ममान्त॑ मू | ४ ॥
पदार्थ-- (य') জা पुरुष ( क्षपश्कः ) प्रतिफक्षी और ( थे) जो [असपत्तः)
प्रकट प्रतिपक्षो नही है (ज) घोर (व्रः) जा (द्विषम्) देष करता हुआ (नः) हमको
( कापाति ) कासे [फोम] । / सर्थे ) राज (ধঙ্গা ) भिजयी मदमा { हर
उसको ( धूर्घम्तु ) नाश करे, ( भझह्म ) परमेश्य*, ( बर्स ) कवचरूप ( सभ )
६ ( झम्तरम ) भीतर ছি 11৮11
आवार्थ--छात्रबीन करके प्रकट और अप्रकट प्रतिपक्षिया और प्रनिष्ट्चिन्तकी
হী | रेवा | সা विद्वानू महात्मा नाश कर डालें । वह परब्रह्म सर्वर्षक, कर्व
रूप होकर, धर्मात्माओं के राम रोग में भर रहा है। वही प्रात्मबल देकश ভুক্ত
प्रे श्रदा उनकी रक्षा करता है ॥४॥ |
ए सुक्तम् २.४९
१--४ अथर्वा । सोम, मस्त, २ मित्राबल्णौ, २ वरण, ४ इन्हें ।
भनुष्ट्प्, ? दिप् ।
अद।रसुद् मषतु देव घोभारिमिन् यहे एषतो रहता नः ।'
দা नो बिदभिभा मो अशंध्रिसो नो बिददू इजिना डेप्या या ॥१॥
परवार्थ--(देश ) हे प्रकाशमय, (सोम) उत्पन्न करने वाले परमेश्वरं | [बृह्
সু ] ( श्रदारसत् ) डर का न पहुंचाने बाला झथवां अपने सथ्री ग्रादि के पास के
पहुँचने वाला ( भवतु ) होते, ( मरुत. ) है [शश्रुओ के मारने वासे देवताभौ 1
( पझ्रस्मिद ) इस ( यक्ञे ) पूजनीय काममे (भः ) हेम पर (भृढत) झअतुग्रह करो ।
झमिभा ) सम्मुख चमकती हुईं, भ्रापत्ति (न.) हम पर (मा बिदत्) न भा पड़े,
और (भो-- सा उ) न कभी ( भरह्ास्तिः ) प्रपकीति श्रौर (भा) भा { शिष्यौ }
वेषयुक्त ( घबुजिता ) पाप वुढ्धि है | बह भी | (ना ) इमपर (्ादिष्त् ) न
आ पड़े ॥१॥
आवार्थ--सबव मनुष्य परमेश्वर के महाय से शशुप्नी को मिर्षंल कश'दें श्रणवा
धर ऋष्लो से भ्रलस रक्सं भीर विद्धान् शुरथीरो से मी सम्मति लेवें, ज़िससे प्रत्येक
विलि, भरपकीलि श्रौर कृमि हट जाप प्रौर निर्विध्न भरभीष्ट सिदध. होवे ॥१॥
यो सघ सेन्यो वपो घायूलांमदोर॑ते ।
युव तं मिश्रादरणादस्मदू याबयतुं परि ॥२॥
पदार्थ (प्रच) সাজ (प्रधानाम्) बुरा चीतने वानि एधरुभोषी (ইন:
सेना का चलाया ध (य. ) गो ( वधं ) शस्त्रप्रहार (उदीरते) उठेरहौहै
मित्रावरुखो ) है [ हमारे | परार भौर भानं { पुत् } परम दोनो ( म् ) उस
হাস प्रहार | को ( स्मत् ) हम लोगो ते ( परि ) सन्या ( पाचयतम्
प्रलग रक्लो ।।२॥ ॥
भावाज॑---जिस समय युद्ध मे शत्रु सेला झा दबाये उस समय पपने प्राण
क्षपान बायु फो यथायोंग्य सम रख कर भ्रौर सचेत हीकर शरीर मे बल बढ़ाकर लोग
मुद्ध करें, तो झत्ुओं पर शीघ्र जीत पाबें। श्वास के सांधमे से मनुष्य स्वस्थ और
बलवान् होते ह ! भ्राश भ्रौर प्रपात के समान उपकारी भौर बलवान् होकर यद्वा
लोग परस्पर रक्षा करें ॥४)।
इतश्ण पदपुतदय यदू बर्ध बंदण पादय |
বি महच्छस यच्छ बरोंबो पाद्या दशर || ২।।
भक प এপ সি
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