संस्कृति संगम | Sanskriti Sangam

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Sanskriti Sangam by क्षितिमोहन सेन शास्त्री - Kshitimohan Sen Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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संस्कृति सगम बाच को एक बार फर विद्वानों को स्मरण करा देने के लिए ही यह लिख रहा हूँ। वैदिक युग में मिन्न-मित्न वेद और शाखाओं को आश्रय करके भिन्न-भिन्न ब्राह्मणादि जातियाँ भिन्न-भिन्न स्थानों में बस्तीयीं। जीविका के लिये ये शाखाएँ कभी-कभी सुदूर देशों को भी चली जाती थीं। उत्त दिनों किसी एक शाखा को माननेवाली जाति के लोगों में यदि दुसरी किसी शाखा का परिचय पाया जाता तो वह्‌ सम लेना স্মাান था कि ই लोग कहीं बाइर से आकर बरस गए हैं। अब समाज-व्यवस्था अधिक जटिल हो गई है और वैदिक शाखाएँ प्रायः भ्रुल्षा दी गई हैं ।इसलिए आज शाखाओं के आधार पर यह पहचान सकना कठिन हो गया है कि कोन जन-समूह कहाँ से आकर बसा हुआ है। अब प्राचीन शश्सूत्रों दारा समाज का शासन नहीं होता फिर भी निषेधो के प्रचार से अब भी यह समम्का जा सकता है कि कोई जन-समूह वास्तव में किस प्रदेश के लोगों का निकट-सम्बन्धी है। थहाँ यह कद रखना आवश्यक है कि निरबंधों की रचना बाद में हुई है | सृत्नों के बाद स्पतियों का और उनके भी बाद निबंधों का प्रचलन हुआ हे | इसलिए, निबंधों के द्वारा जिन सम्बंधों का परिचय मिलेगा वह शोर भी दाल का होगा । इस प्रकार विचार किया जाय तो सारे भारतवर्ष के मिन्न-मिन्न अदेशों से अदभुत सांस्कृतिक और बशंगत सम्मिलन का परिचय मिलेगा जो, भेरे बिचार से, माषा, साहित्य और शारीरिक समताओं की अपेज्ञा कम वज़नदार प्रमाण नहीं है। उदाहरण के लिए बंगाल, असम ओर मिथिला को लिया जाय | बंगाल में रघुनन्दन के निबंधों का प्रचलन है | इसे अंथकार ने तत्त्व नाम देकर २८ खंडों में विभक्त किया है | इसीलिए इनको कभी कभी अष्टविशति तत्त्व कद्ते हैं। काशी में समाहत होने के कारण 'मिताक्षरा? प्राय; समूचे भारतवर्ष में प्रचलित है पर्तु बंगाल में उसका प्रभाव नहीं के बराबर है। यहाँ जीमूतवाइन का दायमाग? ही चलता है | नेपाल




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