आत्म धर्म भाग - 1 | Aatm Dharm Bhag - 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
445
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about रामजी माणेकचंद दोशी - Ramji Manekachand Doshi
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)बैदाख : २४८०
अवश्य है, परन्तु वदद मेदरूप व्यदद्ार
राय करने योग्य नहीं दैं। अपने में
अमभेद स्वभाव का करते हुए
भेद का विकल्प झाता श्वश्य है, किन्तु
वह श्राश्रय करने योग्य नहं। है;
या विकल्प के में रुके तो
सम्यग्दशंग नहीं हाता--अमे रूप भरूताथ
स्वभाव की सन्मुखता से दी सम्यग्दशन
हंता दे।
प्रचादिकाल से मिध्या:ि. जाव
ब्यादार के श्राश्प से परम सानते ह;
उन्दें समनाते है कि अरे
मूढ़ ! ब्यग्रहार के श्राश्रय से लाभ नहीं
है; बेरा एकरूप चेतन्यस्त्रभाव सूताथ
है, उसकी दृष्टि से ही तोता
है, इसलिये भूताथ स्वभाव हो श्ाधय
करने योग्य है--ऐसा तू समक ! व्यव-
हार के से का. पर-
माथे स्वरूप ज्ञात नहीं होता, शुद्धनय
के अझवलम्बन से झात्मा के परमाथं
स्वरूप को जानना वह सम्यर्दशंन दे
सम्यग्दशेन कतकफल के स्थान पर
है यह बात रष्टान्स द्वारा सममकाते हैं। जेसे :
पानी और कीचड़ एकमेक हों बहाँ
मूखे लोग तो कीचड़ श्र पानी के
विवेक बिना उस पानी को गंदा
मानकर मेले पानी का ही अनुभव करते
हैं, घोर पानी के स्वच्छ स्वभाव को
जाननेवालि कुछ अपने दाथ
से उस धनी में डालकर
१ १८४:
पानी और कादव के विवेक द्वारा निमंल्ल
जल का अजुभव करते हैं ।--इसप्रकार
पानी का दृष्टान्त दै। उसीप्रकार झात्सा
की पर्याय में प्रबल कर्मों के संयोग से
मलिनता हुए है; वहाँ जिन्दें आात्सा के
शुद्ध और विकार के बीच का
मेदज्ञान नहीं है--ऐसे श्रतानी जीव हं।
का सलिनता रूप ही अनुभव
करने हं। उन्हें यहाँ झाचायंदेव सम
माय हैं फि दे जीव ! यह जो सजि-
नता डिग्ाई देती है बह हो क्षखिफ
झभूरव $, वह तेरा नित्यस्पायी
नहीं ; तेरा स्वभाव
तो शुद्ध चेत्तन्य्ररुप हैं, उसे तू शुल्धनय
द्ारा देव; शुद्ध नय द्वारा शपने 'झाव्मा
को कर्म मंर विकार से पथ जान ।
संबंधी टष्टि से न देखकर शुद्धनय का
सवलंबन लेकर घ्ारसा के भूताथ सर भाव
की पवित्रता का श्नुभव करना बह
सम्पग्दशन हैं।
सम्माइट्री हवइ जीवो''---झर्थात' भूतायं-
स्त्रभाव का करनेवाला जीय सम्य-
ग्दष्टि होता दै,--ऐसा कहफर आचाये-
देव ने सम्यग्द्शन का महान सिद्धान्त
बतलाया है ।
आत्मा के परमार्थ शुद्ध स्वभाव
पर तो झअज्ञानी की दृष्टि नहीं है, इस-
लिये कस के संयोग की और श्रशुद्धता
को दृष्टि करने से उसको शष्टि में अपना
ज्ञायक एकाकार स्वभाव तिरोबूत हो
गया है--देंक गया है; करसों ने नहीं
User Reviews
No Reviews | Add Yours...