लोक विजय - यन्त्र | Lokvijay - Yantra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रेस्तावना १ हैं ३६० नहीं । जतएव द्वादश राशि मान लेनेसे ३६० दिन या. अगसंख्या निष्पस्त हो जाती हैं । अतएव द्ादशार शब्दको रादिबोधक मानना उचित है । युव्तिसे भी यह सिद्ध होता हैं कि आकाश-मण्डछूका राशि एक स्थूल अवयव है और नक्षत्र सूकषम अवयव । जब सौर जगत्‌के सूदम अवयव नक्षत्रोका इतनी गम्भी रताके साथ ऊद्दापोह किया गया हो तव स्थूलावयव राशिके सम्बन्धमे कुछ भी विचार नही किया हो यह बसे सम्भव हैं ? अतएव रादि-विचार और ग्रह-कक्षा सम्बन्धी तथ्योकी जानकारी वैदिक कालमें विद्यमान थी । तैत्तिरीय सहितामें वत्ताया है कि सूर्य आाकाशकी चन्द्रमा नक्षत्र-मण्डलकी वायु अन्तरिक्षकी परिक्रमा करते हैं और अग्नि देवका पृथ्वोपर निवास है । इससे यह ध्वनित होता हे कि सूर्य चन्द ओर नक्षत्र कक्षाएँ क्रमश ऊपर-ऊपर स्थित है । तैत्तिरीय ब्राह्मण के एक मन्त्रमें विदव व्यवस्थाका वर्णन आया है जिसमें सूर्य चन्द्र नक्षत्र आदिकी कक्षाएं भी अछि हूं । स्वतन्त्र रूपमे ज्योतिषका विकास स्वतन्त्र रूपसे ज्योतिषका विवेवन वेदाज्ध ज्योतिषसे आरम्भ होता हैं । यज्ञोकी तिथि मुहूर्त शोभन- काल नक्षत्र आदिके परिज्ञानके लिये वेदार्ग ज्योतिपकी रचना की गयी । इस ग्रन्थके रचना-कालके सम्बन्धमें मत-भिन्‍्तता है । प्रो० मेवसमूलरने इसका रचनाकाल ई० पूर्व ३०० प्रो० वेवरने ई० पू० ५०० कोल ब्रुक- ने ई० पू० १४१० और प्रो० ह्विटनीने ई० पू० १३३८ बतलाया है । लोकमान्य तिलकने अपने ओरायन ग्रन्थें अयन ओर सम्पात नक्षत्रके गणितानुसार इसका रचना-काछ ई० पू० १४०८ स्थिर किया है । पर निष्पअ दृष्टिसि विचार करने पर उपलब्ध वेदाज़ ज्योतिषका स्ुलन ई० पू० ५०० वर्षके पहले नहीं हुमा है । वेदाद्ध ज्योतिषमें ऋगवेदाद्ध ज्योतिष यजुर्वेदाज् ज्योतिष और अथवंवेदाज्ध ज्योतिष ये तीन ग्रन्थ सखु - लित हैं । ऋग्वेदाद्ध ज्योतिपके सख्ु-लूनकर्ता लगघ नामक ऋषि हैं । इसमें ३६ कारिकाए हैं । किसी-किसी सद्धुरूनमे ४२ से ४४ तक करिकाएँ भी उपलब्ध हैं । यजुर्वेदाद्ध ज्योतिपमें ४९ कारिकाए हैं जिनमें ३६ कारिकायें तो ऋग्वेदाज्ध ज्योतिषकी है और झेष १३ नई कारिकाये आयी है । अथर्ववेदाज़में १६२ इलोक हैं जो फलितकी दृष्टिसि महत्त्वपूर्ण हैं । वेदाज़ ज्योतिषके अध्ययनसे निम्नलिखित पाँच सिद्धान्तोंकी उत्पत्ति पर प्रकाश पडता है । यह सत्य है कि वेदाज्ध॒ज्योतिषके सद्भुलनकाल तक ज्योतिषकी विभिन्‍न शाखाओोका विकास नही हुआ था | १ पश्चवर्पात्मक युगकी मान्यता । २ तिथि-नक्षत्रोंका शुभाशुभत्वकी दृष्टिसि विवेचन । ३ गणित भर फलितका साध्य-साघनके रूपमें कथन । ४ ज्योतिष-घटनाओोकी गणनाका नियम । ५ विषुव-विचार । वेंदाज्ध ज्योतिषका अच्छा सस्करण डा० इयाम शास्त्रीने मैसुरसे प्रकाशित किया हैं जिसमें सुर्य- प्र्ेप्ति और ज्योतिष्करण्डकको सहायता लेकर उपर्पुक्त पाँचो सिद्धान्तोका विष्लेषण किया गया है। ज्यो- तिषके सिद्धान्तग्रन्योका आरम्भ वराहमिहिरके समयसे होता हैं। वराहमिहिरने पश्चसिद्धान्तिका नामक एक ग्रन्थ लिखा है जिसमें ई० सन्‌की छठी शतताव्दीसे पूर्वमें प्रचलित पौलिश रोमक वाशिष्ठ सौर और पेतामह इन पाँच सिद्धाग्तोका सद्ुठन किया है । गणित ज्योतिषकी दृष्टिसि आर्यमट प्रथमका नाम उल्लेख- १ तैस ७४ ३१३ ० सै. रा ३ १११




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