जैन दर्शा के परिपार्श्व में | Jain Darshan Ke Pariparshava Me
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
148
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)जैन दर्शन के परिपाश्व मे १५
आत्म-क्त त्व मे हर प्रकार का अवकाश रहता है। मनुष्य अपनी
इच्छाओं को ऊंची उठा सकता है और तदनुकूल प्रयत्त करके अपने जीवन
को नयी आत्मा दे सकता है। मनुष्य छोटे से बीज को विशाल वृक्ष बना
लेता है, यह तभी सभव है जब वह जानता है कि उपयुक्त सामग्री से ऐसा
मैं कर सकता हु। अगर वह जानता हो कि इस मामले में मैं कुछ नही कर
सकता तो वह कभी उद्योग की ओर नही झुकेगा।
भात्म-कतूत्व के आधार पर ही एकदम गरीबं मनुष्य भी अनुपम
समृद्धिशाली वनता है । अतिशय भोगी भी महान् योगी वनता है । तिह
सा खूखार भी मा-नेसा ममतामय बन जाता है। कुटिल भी ऋनु बन
जाता है और देश-द्रोही भी देश-प्राण बन जाता है ।
मनुष्य पर परिस्थितिया प्रभाव डालती हैं। इसका एकदम खण्डन
नही किया जा सकता । किन्तु मनुष्य परिस्थितियो का दासि नही है 1 वह
उनका स्वामी है, क्लष्टा है, परिपोपक है, परिवर्तक दै और उनका
विध्वसक है 1
वह जवे अपने पौरप को जागृत कर लेता है और कतुंत्व-बल को
पहचान लेता ह तव फिर उसके समक्ष कोई बाधा नदी टिकती। बड़े-बडे
पवतो को वह् रोद डालता ह भौर महान् सागरो को मथ देता ह । सदियो
की बेडियो को मिनटो मे तोड देता है । शताब्दियो की दासता से मुक्त हो
जाता है ।
ये सव क्षमताए केवल आत्म-कत्त्व की देन हैं। आत्म-क्तृ জন
दर्शन की मौलिक महत्ता है । उसने मनुष्य को अपना भाग्य-विधाता रखा
है, उसके स्वत्व का अपहरण नही किया । इसी आधार पर मनुष्य चन्धन-
मुक्तता का अधिकारी होता है और सवंश्रेष्ठ पद की साधना कर सकता
हूँ ।
ईएवर क॒त् त्व-वाद जहा निष्क्रियता और तज्जन्य अक्षमता का
निमित्त बनता है, वहा जैन दर्शंत का आत्म-कतुत्व सक्तियता और सफलता
का आयाम उद्घाटित करता है ।
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