श्रमणोंपासक समता विशेषांक | Samno Pasak Samata Visheshaank

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Samno Pasak Samata Visheshaank  by जुगराज सेठिया - Jugraj Sethiaमनोहर शर्मा - Manohar Sharmaशांता भानावत - Shanta Bhanawat

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मनोहर शर्मा - Manohar Sharma

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शांता भानावत - Shanta Bhanawat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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समता-दर्शन | | ३ अवलोकन होगा, तभी व्यक्ति-व्यक्ति के बीच में आभ्यन्तर समता-दर्शन की प्रतिष्ठा हो सकेगी । इसी आध्यन्तर दृष्टि की सहायता से व्यक्ति-व्यक्ति के हृदयों मे रही हुई विषमताओ का भी ज्ञान होगा । तब दिखाई देगी विचारो की उलभने, भ्रान्त धारणाएँ एवं अपने आपको ही न समझ पाने की कुठाएँ। जिसकी आभ्यन्तर दृष्टि मे समता-दर्शन समाविष्ट हो जाता है, वह इन उलभनों, धारणाओं और कु ठाओ को उनके यथार्थ रूप मे समझ लेता है तथा उनसे श्रस्त व्यक्तियों को उनके आ्राच्छादनो से सचेत करता हुआ अपने जीवनादश से उन्हे आत्मिक आलोक का दर्शन कराता है । आत्म तत्त्व के ये दोनों पक्ष ज्ञेय है कि एक आत्मा ससारी श्रात्मा है जिसके मूल स्वरूप पर मोहनीय आदि आठो कर्मो के स्यूनाधिकं आच्छादन चढ़े हुए है और उन आच्छादनो के कारण उसका आलोकमय मूल स्वरूप दबा हुआ है । इस तत्त्व का दूसरा पक्ष है सिद्धात्मा । सम्पूर्ण आच्छादनो को हटा कर जब आत्मा पूर्णतया अपने मूल स्वरूप मे आलोकमय बन जाती है तो वह सिद्ध हो जाती है । सिद्ध स्थिति ही इसका चरम लक्ष्य माना गया है जहाँ समदर्शिता अपने अन्तिम बिन्दु तके पहुंच जाती दहै । भ्राच्छादनो से प्रालोक की ओर यही आत्म तत्त्व की विकास यात्रा कहलाती है । इसी विकास यात्रा का दूसरा नाम है ममता से समता की ओर वढ़ना । ममता के भाव क्षीण होते है तो विषमता मिटती है एवं विषमता मिठती है तो दृष्टि, मति तथा गति मे समता का संचार होता है । व्यक्ति की उलकी हुई चेतन : व्यक्ति-व्यक्ति के भीतर मे हृष्टिपात किया जाय तो जीवन का रंग-विरंगा रूप अनेकानेक परिस्थितियों मे उलभा हुआ दिखाई देगा। यह भीतर की उलभन ही वाहर की विविध परिस्थितियों मे प्रकट होती है । आान्तरिक उलभनो के परिणामस्वरूप ही एक ही मानव जाति के विभिन्न वर्ग, विभिन्न दल, विभिन्न जातियाँ व विभिन्न सम्प्रदाय पैदा होते है। कितने अप्राकृतिक विभागों मे मानवता विभक्त हो जाती है ? यही कारण है कि आज के परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व मे विषमता का साम्राज्य हष्टिगत हो रहा है, क्योंकि व्यक्ति की चेतना सुलक नही रही है, वल्कि वह ज्यादा-से-ज्यादा उलभती हुई चली जा रही है। वस्तुत, चेतना का सुलका हुआ स्वरूप धर्म की हृष्टि से ही देखा जा सकता है जो मूल मे समता की ह्टि होती है । इस हृ्टि में न विपमता है झीर न दुःख-इन्द्द है। उसमे तो समता का सरोवर लहराता है जहाँ संसार की समग्र




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