जैन तत्त्वज्ञान मीमासा | Jain Tattvagyan Mimasa

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Jain Tattvagyan Mimasa by दरबारीलाल कोठिया - Darbarilal Kothiya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[तिसिद॑ बुभुक्खिद॑ वा दृहिंद दट्ठूण जो हु दुहिदमणौ । | पडिवज्जदि त॑ किवया तस्सेसा होदि अणुकपा ॥ !कोधो व जदा माणो माया लोभो व चित्तमासेज्ज । টি 'जीवस्स कुणदि खोह कलुसो त्ति य त बुधा वेंति ॥* ' अब॑ इन्ही कुन्दकुन्दके समयसारको लीजिये । उसमें पुण्य और पापको लेकर एक स्वतत्र ही अधिकार है, जिसका नाम 'पुण्यपापाधिकार” है। इसमें कर्मके दो भेद करके कहा गया है कि शुभकर्म सुशील (पुण्य) है और अशुभकर्म कुशील है--पाप है, ऐसा जगत्‌ समझता है। परच्तु विचारनेकी बात है कि शुभकर्म भी अशुभकर्मकी तरह जीवको ससारमें प्रवेश कराता हैँ तब उसे 'सुशील' कैसे माना जाय ? अर्थात्‌ दोनो ही पुदूगलके परिणाम होनेसे तथा ससारके कारण होनेसे उनमें कोई अन्तर नही हैं । देखो, जैसे लोहेकी बेडी पुरुषको बाँधती है उसी तरह सोनेकी बेडी भी पुरुषको बाँधती है । इसी प्रकार शुभ परिणामोसे किया गया हुभकर्म और अशुभ परिणामोसे किया गया अशुभ कर्म दोनो जीवको बधते हं ! अतः उनमें भेद नही ह । जैसे कोई पुरुष निन्दित स्वभाववाले (दृष्चरित्र) व्यक्तिकों जानकर उसके साथ न उठता-बैंठता है और न उससे मंत्री करता है। उसी तरह ज्ञानी (सम्यग्दृष्टि) जीव कर्मप्रकृतियोके शीलस्वभावको कुत्सित (बुरा) जानकर उन्हें छोड देते हैं भौर उनके साथ ससर्ग नही करते । केवल अपने ज्ञायक स्वभावमें लीन रहते है । [राग चाहे प्रभस्त हो, चाह अप्रशस्त, दोनोसे ही जीव कमको बधता है तथा दोनो प्रकारके रागोसे रदित ही जीव उस कर्मसे छटकारा पाता है । इतना ही जिन भगवानूके उपदेरका सार है, इसलिए न शुभकम में रक्त होमो मौर न अलुभकर्ममे । यथार्थे पुण्यक वे ही इच्छा करते हैं जो भत्मस्वषटपके अनुभवसे च्युत हँ गौर. केवल अशुभकर्मको अन्ञानतासे बन्धका कारण मानते है तथा त्रत, नियमादि शुभकर्मको बन्धुका कारण न जानकर उसे मोक्षका कारण समझते हैं। इस सन्दर्भमें इस ग्रन्यके उक्त मधिकारकी निम्न ग्राथाएँ भी द्रष्टव्य हँ-- कम्ममसुह्‌ कुसील सुहकम्म॒ चावि जाणह सुसील । कह त॒ होदि सुसील ज ससार पवेसेदि ॥१४५॥ सोवण्णिय पि णियल बंधदि कालयस पि जह पुरिस । बंधदि एव॒ আন सुहमधुह লা कंद कम्म ॥१४६॥ जह णाम को वि पुरिसो कृच्छियसील जण वियाणित्ता | वज्जेदि तेण समय ससम्ग रायकरण च ॥१४८॥ एमेव कम्मपयडीसीलसहाव च कुच्छिद णाउं। वज्जति परिहरति य तस्ससम्ग सहावरया ॥१४९॥ रत्तो बधदि कम्म मुचदि जीवो विरागसपत्तो। एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ।॥१५०॥ वद-णियमाणि धरता सौखाणि तहा तव च कुव्वंता । परमट्ठबाहिरा जे णिष्वाण ते ण विदंति ।॥१५३॥ ` परमद्‌ छबाहिरा जे अण्णाणेण पुण्णमिच्छति। ससारगमणहेदु वि मोव्खहैड अजाणता ॥ १५४1२ + ट पचस्मियसगह। गा० १३५, १३६, १ पचत्थियसगह, गा ० १३५, १३६, १३७, १३८ “२ समयसार, पुण्यपापाधिकार 1




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