भारतीय भाषाविज्ञान की भूमिका | Bharatiy Bhasha Vigyan Ki Bhumika

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डॉ भोलानाथ तिवारी - Dr. Bholanath Tiwari

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माणिकलाल चतुर्वेदी - Maniklal Chaturvedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ऋम्वेद सहिता मे मषा दश्चन ५ (प्रशस्त दीप्ति वाली) भ्रथ प्रकाशन करने के कारण है। ३ वाक के गुण अगस्त्य मंत्रा वरुणि के अनुसार ভাব কষা মুহা रमणी यतता (प्रियता) श्रौर सोदेश्यता (सायक्ता) है१ । अचनानसे श्रात्रेय भी सोदेय्य इरावती), रमणोय (चित्रा) और झोजस्वी (त्विपीमती) वाणी को श्रेष्ठ मभते प्रतीत होते हैं । श्रवत्सार कादयप यथाथक्यनको ही वाणी का गुण सममत समते 3 । कुत्स श्राद्भिरम ऋषि श्रषिवयो स कमठता से युक्त (अप्नस्वती) और मन का अनुसरण करने वाली (मनीपा) वाक की कामना करते है । अर्थात्‌ उनके मत मे बाणी मये दो गुण होने चाहियें। छुरुसुति काण्व ऋषि मौलिक (नव सवित) श्रौर यभाय परक (ऋत स्पृश) वाणी को श्रेष्ठ मानते ह“ 1 उनका সাহা कदाचित्‌ यहद्ैकि वाणीम षक्तावी सूकदूमः प्नौर कटपना सविन कीचाप तो हो ही पर यह इतनी उत्प्रेक्षा या भ्युक्तिमय न हो वि यथाय से विलग जाये।| परह्समद (ग्रपर-नाम श्राद्धिरत शौन होत) वाणौ का सब से बडा गुण माधुय मानते हैं यह तथ्य इस बात से विदित होता है कि इद्र स श्रेष्ठ द्व था की प्राथना करते हुए वे वाक के माघुय (स्वाश्यनू) की कामना वरते हैं+। विद्व मनस बयश्व ने चाकू को घी झौर मघु (शहट) से भी स्वादु बताया है” ) “वी से स्वादु कहने से शायद वाक्‌ मे पोषकता अभिप्रेत है तथा मधु से स्वादु' कहने से माधुय (मिठास) अर्रति प्रियता ग्भिप्रेत है । इन नोना पदार्यों से तुलना वा समावित तात्पय बाक- भी हितता ओर श्रियता है। दीव-तमस श्रौचथ्य सौ शश्र (उचित शन्न वा प्रयोग शुक्र बर्णा)*, रमस्पीय उद्देश्य से युक्‍्तता (रत्न था वसु विद)९ को तो चाहते हो है इन गुणों के प्रतिरिका वाक्‌ म व्यस्जकता भ्रौर सामथ्यं (विष्व विदू) वे साध साथ गाम्भीय (श्र विश्वमिवा) भी होना चाहिय । देवाषि आध्टि पण ऋषि बाणी में सोइइश्मता (इपिरा), झ्ोजस्विता भौर स्पष्टता (यू मती) श्रौर तिर्दोपता (अनमीया) गुणों की चामना करते हैँ*१ | तेम भागव१९ ऋषि वाक को घेनु(दुधार १ द्र पृष्ठ३ टि३ी1 २ द्र पृष्ठ४टिम्। ३ द्र ५१४४६ पाह्गेद दहने, तादृगुच्यते ४ प्षप्नस्वतोमदिवना वाचमस्मे कृत नो दजला वृणा, मनीषाम ।१।११२।२४॥। ४ वाचमरष्ठा पदीमरह नव सक्तिूत स्यम्‌ । इद्रात्परि त-व ममे ७६११२॥ ६द्ठ पष्ठ ३,टि ११ ॥ ७ भ्र-गो হাম মতি ভা বন वच 1 घतात स्वानोयो मधुनश्च बीचत ॥८,२४५२०॥ च इधानो भक्रो विदयेषु दीद्च्छुक चरर्मुदु नो यस्ते धियम ॥१।१४३।७॥॥ উহ তু ইতি) ২০ হ ঘৃতি ও टि) १९१ द्व पृष्ठ ४, टि १० १२ देवीं वाम जनयन्त देवास्‌ सा नो मद्रेषपरूज वुहाना धनूर्वागस्मानुष सु ध्टर्ततु ५ ८।१००।११॥




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