आत्म धर्म | Aatm Dharm

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(८) जब सम्यग्द्शांन के प्रगट करता है तभीः भूतकाल मे किये गये भाव कमे के निमित्त से आगत द्रव्य कमी के सिथ्या करनेबाला सच्चा प्रतिक्रमण होता है। सम्यग्द्शनका प्रगट होना से मिथ्यादर्शन का ग्रति-* क्रमण है। सम्यरदर्श नका प्रगट करके आत्म स्वरूप में लीन हकर चैतन्य स्वरूप आत्मा के अनुभव में स्थिर हाना सा भिध्याचारित्र का प्रतिक्रमण है। यह्‌ यथार्थः प्रतिक्रमण वास्तविक ' मिच्छामि दुक्कद्ः ह । वह धभ का यथार्थ अंग है यां समझना चाहिये। (९) प्रश्न-सम्यग्द्शन हेने पर पूर्वाकृत दुष्कृत' मिथ्या कैसे हे। আন ই? ' उत्तर-' सिथ्या ? कहने का प्रयोजन यह है कि जैसे किसीने पहले धन कमाकर घर में रखा था उसके बाद उसने धनका ममत्व छोड़ दिया इसलिये उसके धनकेा भागने का अभिप्राय नहीं रहा, ऐसी रिथिति में उसने भूतकाल में जे। धन कमाया था वह नहीं कमाये हुये के ही समान है इसी प्रकार जीवने पहले कर्म बंघ किया था उसके बाद जब उसने उसे अहित रूप जानकर उसके प्रतका समत्व छोड़ दिया ओर वह्‌ उसके फल में लीन न हुआ तब भूतकाल में बांधा हुआ कमः नहीं बधि हुये फे समान सिथ्या द्वी हे, इस भाव से पहले का दुष्कृतत मिभ्या हा सकता है ओर इसी भावके सच्चा मिच्छामि टुक्कड ` कहा गया दह । (৫০) प्रदन-सम्यग्दश्च नके सव प्रथम क्यों प्राप्त करना चांहये ) हम ते सम्यग्दर्श नके प्राप्त करना ही कठिन मातम द्वाता है । यदि हम न्रत पाछन करे, जप करे, तप कर, और घरवार छेाहकर चारित्र ग्रहण करे ते क्‍या धर्मा नहीं दवोगा। उत्तर--रत्नन्रय में सम्यग्दशन दी मुख्य हे। सम्य- ग्दशषन के हाने पर दी सम्यगज्ञान ओर सम्यक्चारित्ि द सकता दै, सम्यग्दृश्चन के बिना नहीं। सम्यग्दर्श न क विना सारा ज्ञान. मध्याज्ञान दहै ओर सारा चारि मिध्यार्चासख है सम्यग्दर्शन के विना ब्रत, तप; जप आदि भी सब व्यथ्थ' हे इसलिय मनुष्य जन्मका पा कर सर्वा प्रथम सम्यग्द्शन धारण करना चाहिये । ( दखा अ्वाधसार भ्रावकाचार पृष्ठ ५ ) (१९) अदन--वन्त्व निणय रूप धम के ख्ये कौन याग्य है १ है उतच्तर--तत्त्व निर्णय रूप धर्म' ते बाल, बृद्ध, रे।गो निरागा, घनवान-निर्ध न, सुक्षेत्री तथा बुक्षेत्री इत्यादि वेशाख $ २४७६ ५० म ५ ६ 1 समी' अवस्याओ में प्राप्त द्वाने योग्य है । जे पुरुष आत्म हितेषी है उसे ता स्व प्रथम यह तत्त्व निर्णय रूप कार्य ही करना चाहिये | , রা इसलिये जिसे सच्चा ঘলী ইলা ইা उसे ज्ञानी के ओर शास्त्र के आश्रय से तत्त्व निर्णय करना चाहिये । किन्तु जा तत्त्व निर्णय ते नहीं करता ओर पूजा स्तोन्न, दक्षन, त्याग, तप, वैराग्य, सवम, सतिप आदि सभी कायः करता है उसके यह्‌ समस्त कायः असत्य ह । इस- लिये आगमका सेवन, युक्ति अवरूबन, परस्परा से गुरुओँका उपदेश ओर स्वानुभव के द्वारा तत्त्व निर्णय करना याग्य है । --( होष प्रष्ट २ से आगे )-- का भी छाप हा जायगा, इसलिये जीव के अत्मन्ञान ओर शरीरकी क्रिया से मोक्षका मानना भ्रम मात्र है | (२) जीव में न ते। पुदूगल व्याप्त हे सकता है ओर न पुदूगल में जीव द्वी व्याप्त दवा सकता है तब जा अपने में व्याप्त है ओर जीव मे व्याप्त नहीं हैं पेते अनतत पुद्गरू अपनी क्रिया से आत्माका किस प्रकार मेक्ष ले जायेगे ? यह स्पष्ट है' कि थे नहीं ले जा सके गे । (३) यदि जीव ओर शरीर देनों मिलकर मेष का कायः करे ता जीव ओौर शरीर देनेंके मोक्ष क्षेत्र में जाना चाहिये किन्तु ऐसा नहीं द्वाता, मात्र जीव ही अकेला मोक्ष में जाता है । श्रीमद्‌ राजचन्द्र आत्मसिद्धि में कहते हैं कि--- ( गुजराती ) एज धर्मथी मेक्ष छेत्‌ डा मेक्ष स्वरूप । अनंत दर्शन ज्ञान तू अव्याबाध स्वरूप ॥११६॥ ( हिन्दी ) इसी धर्मा से मोक्ष हे तू हैं मोक्ष स्वरूप | अनंत दर्शन ज्ञान तू अव्याबाध स्वरूप ॥ यहां पर अकेले ही जीवके मेक्ष ू स्वरूप कहा है, जीव और दरीरके मेक्ष स्वरूप नहीं कहा । (४) एक द्रव्य की जे पर्याय है. उसे द्रव्य स्वयं ही करता है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं कर सकता | प्रत्येक द्रव्य अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव: में अस्ति रूप है और पर द्रव्य, क्षेत्र, काल- भाव. में नास्ति रूप है। शरीर अनत' द्रव्य ' हे, उसका प्रत्येक परमाणु भी अपने अपने रव द्रव्य क्षेत्र काक भाव में अस्ति रूप है ओर शरीर के अन्य परमाणु के द्र्य षि $ १५ $




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