राजस्थान में पुस्तकालय सेवा | Rajasthan Men Pustakalay Seva
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
250
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अमृत-नाणी)
न हि ज्ञाचेन सह्शंं पवित्र मिह विद्यते।
तत्स्वयं योग संसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥॥
(गीता ग्रध्याय 4 হী 3৪]
इस संसार में ज्ञान के सहृश्य पवित्र श्रन्य कुछ भी नहीं है । प्रयत्न में संलग्न व्यक्ति समयाससार
उसे सहज ही अपने में पा लेता है ।
ज्ञान युक्ति प्लावेनेव संसाराब्धिं युदुस्तरम्।
महावियः समृत्तीर्णां निमेपेण रघ्रष्टः ॥
इस संसार रूपी समुद्र को बुद्धिमान लोग ज्ञान रूपी नौका पर सवार होकर बड़ी ग्रासानी में है
पार कर जाते हैं ।
ततो वच्मि महावाहो यथा ज्ञानेतरा गति: ।
नास्ति संसार तरणे पाय वन्धस्य चंतराः॥।
चन्धनर में पड़े हुए मत को मुक्त करने श्रौर संसार सागर से तरने के लिए ज्ञान के ध्रविरिन् प्न
कोई उपाय नहीं है ।
अर्थ सज्जन सम्पर्कादविद्याया विनद्यति
चचुर्मागस्तु यास्तार्थेदचतुमगिं स्वयस्ततः)।
भ्राधी अविद्या सज्जनों के संसर्ग से मिट जाती है, उसका चौथाई भाग शरभों है জল নিল
शेप चौथाई भाग स्वयं प्रयत्त करने से नप्ठ हो जाता है ।
विद्या ददाति विनय॑ विनयाद्याति पराथताम् ।
पाइत्वाष्दनमाप्नोति घनाद्धमंस्थतः सखम ॥
विद्या विनय को देने वाली है | विनय से मनुष्य योग्यता को प्राप्त करता । प
मनुष्य घन को प्राप्त करता है श्नौर फिर घुस प्राप्त करता है ।
न हायनैनं पलितनं पित्तेन न दनः
ऋषयबश्चकिरे धर्म बोबतूचान: स नो महान ||
न वर्षों से, न सफेद वालों से, न चित्त से, न भाई दन्दुप्रों से
ने इसी धर्म (मर्यादा) को चलाया है कि हम में दो बस्लुत:
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