जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ | Jain Nivandh Ratnavali Vol 2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( स्था) सुप्रसिद्ध वीतरागी सन्‍्तों के ग्रन्थों में प्रतिपादित विषयों से भी विरुद्ध पड़ते हैं । यहाँ मैं उन ग्रंथों की विस्तृत चर्चा नहीं करना चाहता कारण वहु विषयान्तर हो जायेगा तथापि “त्रिवर्णाचार”, “सर्वोदिय तीर्थ” आदि इसी कोटि के अनेक ग्रन्थ हैं। द्वादशांग का मूल रूप पूर्ण अ-प्रकट है मात्र उनके आंशिक ज्ञान के आधार पर ही आचार्यों ने पट्खंडागम-कषायपाहुड़-गोम्मटसार महा- पुराण-रत्नकरण्ड श्रावकाचार-त्रिलोकसार लब्धिसार आदि ग्रन्थों का निर्माण किया है आचारांग भादि अंग और उत्पाद पूर्वादि पूर्वों का सदृभाव नहीं है तो भी आज लघु विद्यानुवाद आदि नाम से कल्पित ग्रन्थ प्रकाश में आ रहे हैं। जिनका विषय और प्रक्रिया स्पष्ट रूप से जैन धर्म के मूल सिद्धांतों के प्रतिकूल है । जैनाचार्यों के नाम से शासन देवता पूजा के ग्रन्थ ज्वालाभालनी कल्प, भेरब-पद्मावती कल्प आदि प्रकाशित हैं जिनमें मात्र उनकी पूजा आदि ही जिनागम विरूढ नहीं, किन्तु पूजा पद्धति भी हिसा पूणं अभक्ष, अग्राह्य पदार्थो से लिखी गई है जेन प्रतिष्ठा पाठों के नाम पर गोवर-पूजा-आरती का भी विधान लिखा गया है । यह सब कपोल कल्पित है। अथवा जिनागम को भ्रष्ट करने का ही प्रयास उन लेखकों द्वारा कल्पित जेनाचार्यों के नाम पर किया गया है । स्‍्व० पं० मिलापचन्दजी कटारिया ने अपने अनेक शोध पूर्ण लेखों में कतिपय विषयों का विश्लेषण करते हुये उनके




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