कैरली साहित्य दर्शन | Kairalii Saahity Drashan

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Kairalii Saahity Drashan by आचार्य काका कालेलकर - Aachary Kaka Kalelkarमाधव पणिक्कर - Madhav Panikkarरत्नमयी देवी दीक्षित - Ratnmayi Devi Dixit

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काका कालेलकर - Kaka Kalelkar

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माधव पणिक्कर - Madhav Panikkar

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रत्नमयी देवी दीक्षित - Ratnmayi Devi Dixit

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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-ग्यार्ह- सागर की इस लीला के बारे में हम क्‍या कह सकते हैं ? “भगवान्‌ न॑ दिया, भगवान्‌ ने ले लिया । उसी की जय हो (111८ 1.00 89ए८, 611611,014 6০০01416৪9৮, 31535601709 100 1091776 017 ८11९ 1,010) !” केरल की संस्कृति की श्रनेक घृवियां ह । वहां के लोग प्राणवान हे। स्त्री-प्राधान्य होने पर भी वहां की प्रजा पुरुषार्थो हे । श्राज भारत का राज्य चलाने में फेरलीयोंका हिस्सा लोक-संस्या के श्रनुपात से कहीं श्रधिक है, और यह स्थान उन्होने कवल श्रषनी बुद्धि- शक्ति, उद्यमशीलता श्रौर श्रसाधारण निष्ठा से ही प्राप्त किया है । श्रार्य-संस्कृति श्रपनी संस्कृत भाषा लेकर पूर्व श्रौर दक्षिण कौ और बढ़ी । बढ़ते-बढ़ते कुछ थक-सी गई और उसके साथ-साथ मंगोलि- यन तथा द्वाविड़ी संस्कृति का मिलान भो हुआ्आ । लेकिन जब संस्कृत भाषा केरल में पहुंची तो उसे बहुत ही श्रनुकूल क्षेत्र मिला । करल की जनता ने संस्कृत को ऐसे उत्साह से श्रपनाया श्रौर उसकी एसी श्रच्छी सेवा की कि श्राखिरकार श्री शंकराचार्य के द्वारा उसने श्रायं-संस्कृति का ग्रुपद ही श्रपने हाथ में ले लिया श्र श्रपनी शुद्ध द्राविड़ भाषा के साथ संस्कृत का ऐसा मिलान किया कि आ्राज केरलीय भाषा में संस्कृत का जितना प्रमाण पाया जाता है उतना उत्तर को श्रायं-कुल की भाषाश्रों में भी नहीं पाया जाता ! दक्षिण में ये समद्र-तटवासी लोग सम्ृद्र के उदर से मोती भी निकालते हें श्रोर प्रवाल भी निकालते हे। सफेद चमकीले मोती (श्रोर गोलकृण्डा के हीरे) श्रौर सागर के वनःवक्षो से पाये हए श्रारक्त प्रवाल एकत्र करके जब ये लोग उनके हार बनाते हं तब उनकी शोभा के लिए एक नया ही 'मखि-प्रवाल' नाम देना पड़ा। केरलीय साहित्य का प्रधान लक्षण इस “'मरिण-प्रवाल' दली से ही व्यक्त हो सकता हे । प्रजा का पुरुषार्थ, उसकी समाज-रचना, भाषा श्रोर लिपि के स्वरूप, हर दृष्टि से देखा जाय तो श्रार्य-संस्कृति तथा दक्षिण को द्राविडी संस्कृति में उत्तर-दक्षिण के जितना ही भेद है। ऐसे भेद में समन्वय के




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