तुलसी के चार दल | Tulsi Ke Char Dal Dusari Pustak

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Book Image : तुलसी के चार दल  - Tulsi Ke Char Dal Dusari Pustak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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বালতন্ধা লই ११ कर कंकन, कटि किंकिनि, तूपुर वाजइ हो। रानी के दीन्हीं सारी ते सधिक विराजद हो ॥११॥ शब्दार्थ---ऊनक तरीवन--सेने के करनफूल । येमरि--नय । अर्थ --( उक्त नाउन के ) कानों में सोने के करनफूल तथा ( नाक में ) नथ अत्य त भोभा देती हैं। उसके हृदय पर गजमुक्ता की माला तथा गले में मणियें की कठशी ४, यह सबके चित्त के आकपित करती है। उसके हाथों में कंगन (स्री का ककण) और कमर में घु घरदार जंजीर (एक आभूषण) है। परों में विछियों की मधुर ध्वनि होती #। रानी की दी हुई सारी पहन लेने पर बह और भी खुदर लगती है । टिप्पणी--( १ ) इस छंद में आभूषणों का संज्ञिप्त और विशेष व्थ॑न किया गया है। (२) प्रथम तीन पंक्तियो में स्पष्ट रूप से स्वभावोक्ति ग्रत कार है। काहे रसामजिङ संवर, लदल्िसन गोर हो। कीदहें रानि केासिलहि परिगा भोर हो॥ रास अ्रहहिं दसरथ के लबिसन शान क हो। भरत सचुहन भाद्द तो श्रीरघुनाथ क हो ॥१२॥ शब्दाधे--फाई--प्यो । सिर -सायर । ওহ নর্থ, क्या कही । भोर परिगा--धेाया हो गया। पहद्धि' ( 'परित )-४ । শান দিত के, तूसरे ( पिता ) फे । अर्थ--- (साइन कहती 7--) राग ता सावले ४. फिर लबश्मणजी गोरे क्यों हैं ? रानी कौगल्या का धोखा तेा नहीं के गया ९ ( संभव है, उन्होंने अन्य किसी पुरुष यो গা समझ




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