महादेवी का विवेचनात्मक गद्य | Mahadevi Ka Vivechnatmak Gadhya

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Mahadevi Ka Vivechnatmak Gadhya by गंगा प्रसाद पाण्डेय - Ganga Prasad Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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काव्य-कला मुहूर्त श्र उपस्थित होते हैँ जिनमे वह्‌ पर्वत के समक्त खदी होकर ही सफंल हो सकती है और गुरुतम वस्तु के लिए भी ऐसे लघु क्षण ग्रा पहुँचते हैँ जिनमें वह छेटे तृणु के साथ बैठ कर ही कृतार्थ बन सकती है। जीवन का जो स्पर्श विकास के लिए अपेक्षित है उसे पाने के उपरान्त छोटा, बदा; लघु, गुरु, सुन्दर, विरूप, श्राकपक, भयानक, कुछ भी कलाजगत्‌ से बहिप्कृत नहीं किया जाता | उजले कमलों की चादर जैसी चाँदनी में मुस्कराती हुई विभावरी अमिराम है, पर ইং ঈ स्तर पर स्तर ओढ़कर विराद्‌ बनी हुई काली 'रजनी भी कम सुन्दर नहीं | फूलों के बो से शुक शुक पड़नेवाली लता कोमल टै पर दन्य नीलिमा की श्रार विस्मित व्रालक-पा ताकनेवाला टट भी क्रम सुकुमार नहीं] श्रविर जलदान से पृथ्वी को कँपा देनेवाला बादल ऊँचा दे पर एक दूँद आँसू के भार से नत श्रोर कम्पित तृण भी कम उन्नत नदीं | गुलाब के रंग और नवनीत की कोमलता में कंकाल छिपाये हुए. रूपसी कमनीय है, पर क्कुरिर्यों में जीवन का विज्ञान लिखे हुए वृद्ध भी कम आकर्षक नहीं | बाह्य जीवन की कठोरता, संघर्ष, जय-पराजय सत्र मूल्यवान्‌ हैं पर श्रन्तर्जगत्‌ की कल्पना, स्वं, भावना प्रादि भी क्म द्रनमोल नहीं | उपयोग की कला ओर सोन्दर्य की कला के लेकर बहुत से विवाद सम्भव द्वोते रहे परन्तु यद भेद मूलतः एक दूसरे से बहुत दूरी पर नहीं ठहरते । | कला शब्द से किसी निर्मित पूर्ण खण्ड का ही बोध होता है और - कोई भी निर्माण अपनी अन्तिम स्थिति में जितना सीमित है आरम्भ में ह 6 2




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