संस्कृत समीक्षा - सिद्धान्त और प्रयोग | Sanskrit Sameeksha Sidhanta Aur Prayog

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वैदिके साहित्य में काव्यशास्त्र के सोत [ € कान्यसौन्दय-द्ोतक स्थल अव अन्त में वैदिक साहित्य, से कुछ एसे स्थल लिये जा रहे हैं जिनमें काव्य- सौन्दर्य लक्षित होता है । यों चाह तो हम इन्दे गब्दशक्ति, रस, अलकार आदि के भेदो के उदाहुरण-स्वरूप स्वीकार कर सक्ते हँ । इनमें लक्षणा अथवा व्यञ्जना की ्‌ति सिलेगी | श्छंगार, करुण सादि रसों की चमत्कृति उपलब्ध होगी, तथा उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, रूपकातिशयोक्ति आदि बहुविध अलंकारं कौ सुन्दरता तो अनेक स्थलों मे देखने को मिलेगी | किन्तु यहाँ इन्हें इस उद्देश्य से प्रस्तुत किया जा रहा है कि हम इनमें काव्य-सौन्दर्य देख सकें, इनमें काव्यशास्त्रीय विभिन्‍न तत्त्वों को ढूंढने नी दृष्टि से ये स्थल प्रस्तुत नहीं किये जा रहे । अब कुछ मन्त्र ऋग्वेद से लीजिए--- कन्येव तन्‍वा शाददाना एपि देवि देवसियक्षमाणम्‌ । संस्मयमाना युवति: पुरस्तादाविरवक्षांसि कृणुषे विभाती ॥ ऋग्‌० १.१२३.१० तरुणी उषा का मन अपने वल्लभ सूर्य को देखकर नाच उठा। वह स्मित- चदता अपने प्रिय को उसका अभीष्ट [सुख] प्रदान करने के लिए उसके सम्मुख खड़ी हो गयी ओर उसने अपने वक्षःस्थल को खोल दिया । जायेव पत्य उश्चती सुवासा उषा हस्र व निरिणीते मप्सः 1 ऋग्‌० १. १२४. ७ उषा लोगों को अपना रूप उस प्रकार दिखा देती है, जिस प्रकार कामयुव्त सारी ऋतुकाल में सुन्दर वस्त्र धारण कर पति को अपना रूप दिखाती है, तथा उषा अपने भीतर छिपे हुए सब द्रव्यों के रूपों को उस प्रकार दिखा देती है, जिस प्रकार हँसती हुई अथवा हास्य स्वभाव वाली कोई नारी हँसकर अपने दाँतों को दिखाती है। ता इन्नवेव समना ससानीरमीतवर्णा उषपसइचरन्ति गूहन्ती रभ्वस सितं रुखद्भि: शुक्रास्तनूभि: शुच्॒यों रुचाना: | ऋग्‌० ४.५१.६ ये उपाकाल--जो कि अब भी वंसे के वेसे हैं, वैसे ही अपनी चमकती हुई आक्ृतियों से युक्त हैं, वेसे' ही जाज्वल्यमान हैं तथा वैसे ही इनसे' किरणें फूट হী हैं, इसके वर्ण में कोई अन्तर नहीं आया-- [आगे की बोर] वढ़ रहे ह तथा [वदते समय | काले राक्षस [के समान अन्धकार] को ढपते चले जा रहे हैं । दयः सुवर्णा उपसेदुरिन््र भरियमेवा ऋषयो नाधमानाः । अपध्वान्तम्‌ णुहि पधि चक्षुमुमुरध्यस्मान्तिघयेव बद्धान्‌ ।1 ऋग्‌० १०. ७३. ११ ;छ स्थल प्रस्तुत कर / कर सक्ते है 1




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