समकालीन भारत में सामाजिक समस्याएँ | Samkalin Bharat Mein Samajik Samasyaein

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Samkalin Bharat Mein Samajik Samasyaein by एम. एल. गुप्ता - M. L. Guptaडी. डी. शर्मा - D. D. Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सामाजिक समस्‍्याएँ | 7 जद तक वे अपनी इस परिस्यिति को अनुवित या परिवर्ततीय नहीं समझते हैं, तद ठह उनकी निधगत एह बड़ी सामाजिर समस्या नटी है 1 वर्ठमात भारत में प्रजातान्त्रिक मुल्पों तथा समाजवादों विचारधारा के प्रसार मे लोगो को निर्घनता के प्रति जागरूक बता दिया है और लोग यह अदुभव करने लगे हैं कि विर्धतेता का बना <हता अनुबित है ओर इसे प्रयत्न द्वारा कम अपदा समाप्त हित जा सकता है। यहौ कारण है कि इसते आजकुल बड़ें आकार की समस्या का रूप प्रदण कर लिया है। यह कहा जा सकता है कि एक सामाजिक समस्या का आऊार उस समय सबसे अधिक होता है जब तोय काफी सहय। मे तीत्रता मै उत्तेजित हो उठते हैं और इसलिए कोई कार्यवाहो करने को प्रस्तुत हो जाते हैं ॥ सामाजिक सप्रस्पाएँ, सामाजिक विघटन त्या वेषकितिक विधघटन ( 1 (80८1 41. ए 071६115. 50611. 01505041412+7110 + 9 उचह्णाशएफएड८ 0ए715070#870स224717009) सामाजिक विघटन को समझने के लिए सामाजिक संगठन को समझना आवश्यक है | इलियट और मेरिल ने बललाया है कि सामाजिक सगठन चहू दशा अपवा स्थिति है, जिसमें रिसी सप्राज की विभिन्न सस्यायें अपने मान्यता-आप्त या पूर्व-निर्धारित लक्ष्यी के अनुसार कार्य करती रहती हैं। सामाजिक सगठनत कौ स्थिति में एक समाज के विभिन्न तत्वों का सचालव सुमब्यवस्यित ढग से होता रहता है । इस ভয় में एक समुदाय, धार्मिक अथवा राजनैतिक इकाई या समाज विशेष का पना सामाजिक समठत होता है। इलियट व मेरिल के अनुसार सामाजिक सगड़न सामाजिक सइ॒पो को सामान्‍य परिभ्ाषाओ और उन लक्ष्यों को प्राप्ति के लिए सामान्‍य रूप से स्वीकृत कार्यक्रम पर निर्भर करता है ॥ प्रत्येक समाज में सामाजिक संगठन भित्र पिश्न अंशो से पाया जाता है। कोई भी ऐसा सप्ताज दिखनायो नहीं पडता जहाँ सायाजिक सथठन पूर्ण रूर में पादा जाता हो, अर्वाव्‌ जहाँ एक समाज के सभी सदस्य सांपान्य लड्ष्पो की प्राप्ति के प्रयत्त मे पूरी तरह एक-दुसरे के स्वाथ सहयोगात्मा सम्दन्ध बनाये हुए अपनी भ्रूमिकाएँ निभाते हो। प्रूर्ण सामाजिक संगठन का तात्पये सर्वेसम्मदता गौर व्यवहार प्रतिमानों में स्पापित्व से है जो आज के द्ीत्र गति से परिवर्तनीय समादों में सम्भव नहीं है। यहाँ हमे इस बात को घ्यात में रखता है हि सामाजि सगठत कोई स्थिर या गतिहीन व्यवस्था महीं है। इस सम्बन्ध ঈ मोरर ने लिखा है झि सामाजिक सयठन कोई स्थिर, गतिद्वीन वरठु नहीं है जो एक बार स्थापित हो जाने पर अपरिवर्तित बठी रहती हो ; एक अप में तो यह एक उप कत्यता (199911८$७), एक आदशें-रचना (10८3 ८०७५७४७८)) है जो प्रत्येक समःज में सतत शिदयम्न परिवनंनणोल पहलुओं को नहीं बल्कि संस्कृति के सापेश्त अपरिदर्दतगीस प्रतिमातों को अधिक महत्त्व देती है 1४ जिन समाजों में परिवर्तत की 1 (0०6 & ॥(लतता, उ>तन অগা ৫গ 94 २ ए. ककय, एणस्य, दत्य चवं ऽथ, 2.3




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