निबंध गरिमा | Nibandh Garima

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Nibandh Garima by नवल किशोर - Naval Kishor

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६२ प्रस्तावों তা জী লহ उठती-गिरती रहती है शरीर और (11) विक्षेप्औैली--जिसमें भावनाएं उजड़े रूप में भ्राती है और तारतम्य का अभाव होता है । शैलियों का यह विभाज॑न धहुत संगत नहीं कहा जा सकता, इनको निबन्धों में पहचानने का कोई निदिचत प्रतिमान नहीं हो सकता। घिचारात्मक निनन्धो में बृद्धि-तत्व का प्रधोनता हीती है, पर 'भावनों की भ्रन्द+मल्लिा भी प्रवाहित होती रहती है । थात्रा को निकलती तो है ভু पर हृदय भी अपने रमने के स्थल बराबर पाता रहता हैं। प्रसादजी ने कविता फो 'विन्तन के क्षणों की अनुभूति' कहा है, पर कविता पर यह परिभाषा उतनी लागू नहीं होती जितनी चिचारात्मक विवन्धों पर । अनुभूतिजन्य विशिष्टर्ता कें कारण ही ऐसी रचनाएं शारत्र के अन्तर्गत न होकर साहित्य के श्रम्त्ग॑त होती है अनुशुति-मार्ग में हो लेखंक का अन्तरंग व्यक्तित्व प्रकर्ट होतो है। ऐसे मिवन्धों द्रारा ज्ञानोजन और आनमंद का एक साथ लाभ होता हूँ । शुक्लजी के यन्दों मेँ 'श्रमसाध्य नूतन उपलाध' होतो हँ। विचारात्मक पिवम्धों में विषय कां प्रत्तिपादन तबंग्रतिष्ठित होता है, किन्तु शास्त्र के समान उसका केक्ल वस्तुपरको प्रतिपादन नहीं होता, लेखंक के व्यक्तित्व का समावेश श्रवश्य . ठीता ह । ऐसे निवन्धों में लेखक साहित्यिक भ्रन्‍्थों से उदाहरण देकर रस-संचार करता है, बरीच- बीच में हास्य-व्यंग्य का भो पृट देती है ओर इस भ्रकोर ये निवन्ध गम्भीर हौकर भी सरस बने रहने हैं। आचार्य शुवैल के बब्दों में “शुद्ध विचोरात्मक .वन्धों का चरम उत्कर्प नहीं कहा जो सकता है जहाँ एक*एक पैरागआफ में विचार दवाः दवाकर क्से गये दों शौर एक-एक वाक्‍्य विशी सम्बद्ध विचार-खण्ड को लिये. हो 1 पर यह्‌ तौ लेलीगत श्नादं कौ एकः সম मान्यता ছি । {विचाात्मक निथ्न्य कै अनेकः সহ নিই জার हैं। साहित्य-्पमीक्षां मम्बन्ध लेख अ्रालोचनात्मक निथन्य कदनति ते ई आलोचनात्मकं निचन्व भी चर्मी में दौटे जाते हैं--(१) नंदान्तिक समीक्षा सम्बन्वी--लिन्मे किसी माहित्यिक सिद्धान्त का विवेचन ही. (२) व्यावहारिक समीक्षा सम्बन्धी-* जिनमें किसी कृति या झृतिकाद पर प्रकाश दाला गया ह श्रीर्‌ (३) মবমম্যা स्मया- जिनमें किसी साहिसिविके विषय परश्ननुसंघानपुवक प्रकाश शला गया हो |




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