भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ भाग ५ | Bharat Ke Digambar Jain Tirth Bhaag 5
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
25 MB
कुल पष्ठ :
425
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)14 / भारत के दिगम्बर जैन तीयं (कनांटक)
था, के धर्म का प्रचार अस्मक देश (गोदावरी के तट का प्रदेश), सुश्मक देश (आन्ध्र-पोदनपुर) तथा हेमांगद
देश (कर्नाटक) में भी था। हेमांगद देश की स्थिति कर्माटक में बतायी जाती है। यहाँ के राजा जीवंधर
ने भगवान महावीर के समवसरण में पहुँच कर दीक्षा ले ली थी। संक्षेप में, जीवंधर की कथा इस प्रकार
है--जीवंधर के पिता सत्यंधर अपनी रानी में बहुत अधिक आसक्तेहो गए । इसलिए मन्त्री काष्ठांगार
ने उनके राज्य पर अधिकार कर लिया। सत्यंधर युद्ध में मारे गए किन्तु उन्होंने अपनी गर्भवती रानी को
केकिथन्त्र मेँ बाहर भेज दिया था । शिशु ने बड़ा होने पर आचाये आर्यनन्दि से शिक्षा ली और अपने राज्य
को पुनः प्राप्त किया । काफी वर्ष राज्य करने के बाद उन्हें वराग्य हुआ और वे भगवान महावीर के
समकसरण में जाकर दीक्षित हो गए।
सन् 1982 ई. में प्रकाशित गांव 5६2१८ (82९।८्दा' +०ग-¶ में लिखा है--
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अर्थात् विश्वास किया জালা ই कि कर्नाटक में जैनधर्म का इतिहास भगवान महावीर के युग तक
जाता है। कर्नाटक के एक राजा जीवंधर को स्वयं महावीर ने दीक्षा दी थी ऐसा वर्णन आता है
संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश में तो लगभग एक हज़ार वर्षों तक जीवंधरचरित पर आधारित रचनाएँ
लिखी जाती रहीं। तमिल और कन्नड़ में भी उनके जीवन से सम्बन्धित रचनाएँ हैं। जीवकचिन्तामणि
(तमिल), कन्नड में--जीवंधरचरिते (भास्कर, 1424 ई.), जीवंधर-सांगत्य (बोम्मरस, 1485 ई.) जीवंधर-
षट्पदी (कोटीश्वर, 1500 ई.) तथा जीवंधरचरिते (बोम्मरस) ।
उप्यक्त तथ्यों के आधार पर यह निष्कर्ष सुविचारित एवं सुपरीक्षित नहीं लगता कि कर्नाटक में
जनधमम का प्रचार ही उस समय प्रारम्भ हुआ जब चन्द्रगुप्त मौर्य और श्रुतकेवली भद्रबाहु श्रवणबेलगोल आए ।
कम-से-कम भगवान महावीर के समय में भो जनधर्म कर्नाटक में विद्यमान था यह तथ्य हेमांगदनरेश जीवंधर
के चरित्र से स्वत: सिद्ध है ।
बौद्धग्रन्थ 'महावंश' का साक्ष्य
श्रीलंका के राजा पाण्डुकाभय (ईसापूर्व 377 से 307) और उसकी राजधानी अनुराधापुर के सम्बन्ध
में चोथी शताब्दी के बौद्ध ग्रन्थ 'महावंश' में कहा गया है कि श्रीलंका के इस राजा ने मिगंथ जोतिय
(निगंथ -- निग्रे्थ-जैनों के लिए प्रयुक्त नाम जो कि दिगम्बर का सूचक है) के निवास के लिए एक भवन
बनवाया था। वहाँ और भी निग्न॑न्ध साधु निवास करते थे। पाण्डुकाभय ने एक निग्नेन्थ कुंभण्ड के लिए एक
मन्दिर भी बनवा दिया था । इस उल्लेख से यह सिद्ध होता है कि ईसा से लगभग चार सौ वर्ष पूवे श्रीलंका
में जनधर्म का प्रचार हो चुका था और वहाँ दिगम्बर जैन साधु विद्यमान थे। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता
है कि वहाँ जैनधर्म दक्षिण में पर्याप्त प्रचार के बाद ही या तो कर्नाटक-तमिलनाड होते हुए या कर्नाटक-केरल
होते हुए एक प्रमुख धर्म के रूप में प्रतिष्ठित हुआ होगा ।
महावंश में उल्लिखित जैनधर्म सम्बन्धी तथ्य को प्रसिद्ध इतिहासकार श्री नीलकण्ठ शास्त्री ने भी
स्वीकार करते हुए 'दी एज ऑफ नन्दाज एण्ड मोर्याज़' में लिखा है कि राजा पाण्डुकाभय ने निम्म्न्थों को भी
दान दिया था ।
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