बोधि वृक्ष की छाया में | Bodhi - Vriksha Ki Chhaya Me

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Bodhi - Vriksha Ki Chhaya Me by भरत सिंह उपाध्याय - Bharat Singh Upadyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भगवान्‌ खुद्ध की झाट्मकथा? १४ सब्रह्मवारी मिले । जिस धर्म को मैने साक्षात्कार कर जीवन में किया है उसीको तुमने भी साक्षात्कार कर अभ्यास किया है । जिस धर्म को मै जानता हु उस धर्म को तुम जानते हो । जिस धर्म को तुम जानते हो उस धर्म को ही मै जानता हूं। हम दोनो समान है । जैसे तुम वैसा मै । जेसा मै दंसे तुम । झाश्रो आयुष्मन्‌ । हम तुम दोनो मिलकर इस गण का नेतृत्व करें । इस प्रकार आझालार कालाम ने आचार्य होते हुए भी शिष्य को अपने समान प्रद पर स्थापित किया और मेरे प्रति बड़ा सम्मान प्रदर्शित किया । परन्तु मैने सोचा --गह दिक्षा केवल अकिचन्यायतन तक ले जानेवाली है। इससे निर्वेद विराग निरोध उपशम ज्ञान सबोध शऔर निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती । तब मै उस धर्म को श्रपर्याप्त समभकर वहां से उदासीन हो चेल दिया । + श्रेष्ठ शास्ति-पद की खोज करते हुए मै उद्रक रामपुत्र के पास पहुचा । उद्रक रामसपुत्र ने नैवसज्ञा-नासज्ञाशयायतन बतलाया श्रपने समान पद पर स्थापित किया । मैने सोचा--यहे धर्म न निर्वेद के लिए है न ज्ञान के लिए न उपनाम के लिए न निर्वाण के लिए । उस घर्म को श्रपर्याप्त समभऋकर वहा से उदासीन हो चल दिया । शान्ति की खोज मे मगध मे घूमते हुए मै क्रमश उसरुवेला सेनानी- निगम में पहुंचा । वहा मैने देखा कि एक रमरणीय शुमिभाग से वनखण्ड मे एक नदी रही है जिसके घाट श्रत्यत सुन्दर श्रौर श्वेत है । चारो फिरने के लिए गाव थे । मैने सोचा--मुक्ति के लिए प्रयत्न करने वाले कुल-पुत्नो के लिए यह भूमि ध्यान करने के लिए श्रनुकूल है। यह व्यान-योग्य स्थान है । मै चहा ध्यान करने के लिए बैठ गया । सारिपुत्र सुक्ते स्मरण है कि उस समय मै नग्न भी रहा था मुक्ताचार भी रहा था । अपने दी गई भिक्षा को मैं ग्रहण नहीं करता था श्रौर न निमन्त्रण स्वीकार करता था । कभी-कभी छरियपरियेतन-सुत्त्त १1३18 २. शरियपरियेसन-सुत्तन्त सज्किम. १14६




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