व्रत वैभव भाग ३ | Vrat Vaibhav Bhaag 3
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
531
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(14०)
उपवास कहते हैं। इसका उद्देश्य यह है कि हमारी इंद्रियाँ हमारे वश में बनी
रहें, हम इद्रियां के अधीन न हो जावे ओर आत्म सन्मुख रहते हुऐ
सामायिक, स्वाध्याय आदि सत् प्रवृत्तिर्यो मे संलग्न रह सकं । किसी रोगादि
या शारीरिक कारण से केवल आहार छोड़ना उपवास न होकर लधन
कहलाता है। एक दिन-रात की अवधि में दिन में एक बार शुद्ध आहार
लेना एकाशन कहलाता है। विधि पूर्वक किया गया व्रत ही महाव्रत की
भूमिका बनाता है, जो परम्परा से मोक्ष को प्राप्त कराता है।
इस ग्रन्थ में 475 व्रतो का उल्लेख है। इन सबके उद्यापन की विधि
भी है, जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। कहीं है भी तो संस्कृत में है, हिन्दी में
सरल रूप में नहीं है।
दशलक्षण, नंदीश्वर, णमोकार मंत्र, कर्म निर्शर, लब्धि विधान, रविव्रत
आदि हिन्दी पद्चों में विस्तृत उद्यापन विधि प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रकाशित की गई
है। सभी व्रतों की ऐसी विधि प्रथम बार प्रकाशित हो रही है।
श्री राजवैद्य पं. बारेलाल जी जैन ने सन् 1952 में 'जैन व्रत विधान'
पुस्तक में अनेक उपयोगी ब्रतों के साथ 170 व्रतों का उल्लेख किया है।
परतु इसमें 475 व्रतों का वर्णन है। अनेक नए व्रत भी हैं।
वर्तो की उधापन विधि आवश्यक थी जिसे इस ग्रन्थ में लिखकर कमी
की पूर्ति कर दी गई है। उद्यापन न कर सकें तो व्रत को दुगना करने पर
उसकी पूर्ति मानी जाती है।
व्रतोद्यापन मेँ जो पूजा कं साध किन्हीं वस्तुओं के वितरण का रिवाज
है उसके संबंध में हमारा सुझाव है कि अपनी शक्ति के अनुसार ही व्यय
करना चाहिए। उसका संकेत भी हमने उद्यापन विधि में पढ़ा है। शक्ति से
बाहर प्रदर्शन करना उचित नहीं है।
ब्रत के दिनों में निश्चित मंत्र का जप, पूजा, स्वाध्याय और धर्माराधन
तथा आरभ त्याग के साथ शांतिपूर्वक दिवस व रात्रि व्यतीत करना चाहिए।
ब्रह्मचर्य पूर्वक रहना आवश्यक है। भोजन भी ऐसा गरिष्ट न हो जो
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