आज़ाद हिन्द फौज की कहानी | Aajaad Hind Fauz Ki Kahani
श्रेणी : कहानियाँ / Stories
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3.79 MB
कुल पष्ठ :
112
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया। उनक
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भारत और इंग्लैंड में कालिज जीवन 0 एवं नगण्य है उन्हें अपनी निर्धनता और नगण्यता ही मातृभूमि की सेवा में लगानी चाहिए। कार्य करो जिससे मातृभूमि समृद्ध बने उसकी खुशी के लिए कष्ट झेलो। सुभाष ने निर्धनों की सहायता के लिए घर-घर से दान लेकर और खाद्य-सामग्री एकत्र . करके एक समाज-सेवी संस्था को सहयोग दिया और इस प्रकार स्वयं को समाज-सेवा योग्य प्रमाणित किया। कभी-कभी इस कार्य में उन्हें संकोच का अनुभव होता था। इस लज्जालु स्वभाव पर विजय पाने के लिए उन्हें पर्याप्त प्रयास करन पड़ा। उन्होंने विद्यार्थियों के त्सार्यक्रमों में जैसे वाद-विवाद बाढ़ और सूखा से पीड़ित जनता की सहायता हेतु धन एकत्र करना एवं अधिकारियों से विद्यार्थियों के प्रतिनिधि के रूप में बातचीत करना आदि कामों में भाग लेना आरंभ किया। उन्होंने विद्यार्थियों की टोलियों में भ्रमण करने में भी अधिक रुचि ली और इस प्रकार अंतर्पुखी प्रवृत्ति से छुटकारा पाना आरंभ किया। 1914 के ग्रीष्मावकाश में वे यकायक कलकत्ता छोड़कर अपने माता-पिता को बिना सूचित किये तीर्थ-यात्रा पर निकल गये। उस समय उनकी आयु केवल 17 वर्ष की थी। वे आध्यात्मिक गुरु की खोज में ऋषिकेश हरिद्वार मथुरा वृंदावन वाराणसी और गया गये उन्हें इच्छानुकूल गुरु नहीं मिला और वे निराश होकर कलकत्ता लौट आये। जब प्रथम विश्व-युद्ध आरंभ हुआ सुभाष टाइफाइड ज्वर से पीड़ित थे। अब सुभाष में राजनैतिक चेतना का उदय होने लगा। स्वतंत्र रूप से कार्यक्षेत्र में प्रवेश करने के लिए उन्हें दो बातों ने प्ररित किया । उनमें से एक थी एथम विश्व-युद्ध के दौरान अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति आम व्यवहार और दूसरी बात ट्राम रेल और सड़कों पर भारतीयों के साथ धृष्टता एवं असभ्यता का बर्ताव करना उन्होंने अपने सचेतन स्वभाव के कारण इन घटनाओं के वियेध में प्रत्याघात किया जब भारतीयों ने कानून व्यवस्था अपने हाथ में ले ली तो उसका प्रभाव महत्वपूर्ण पड़ा । सुभाष ने देखा कि अंग्रेज शारीरिक बल का आदर करते थे और इस शक्ति को अच्छी प्रकार समझते थे। प्रथम विश्व-युद्ध को भी वे अच्छी प्रकार समझते थे। प्रथम विश्व-युद्ध से वे अच्छी प्रकार समझ गये कि सैनिक शक्ति के बिना कोई राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने में समर्थ नहीं हो सकता । सुभाष ने इंटर की परीक्षा 1915 में सम्मान सहित उत्तीर्ण की और बी.ए. आनर्स में दर्शनशास्त्र विषय लेकर प्रविष्ट हुए। आगामी वर्ष के प्रारंभ में ही एक घटना ऐसी घटी कि उन्हें कालिज से निलंबित कर दिया गया । एक अंग्रेज प्राध्यापक जिसका नाम ई.एफ. ओटन था भारतीय विद्यार्थियों के साथ सदैव असभ्यता का व्यवहार करता था। विद्यार्थियों के प्रतिनिधि के रूप में सुभाष ने प्रधानाचार्य से इसकी शिकायत
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