पृथ्वी का इतिहास | Prathvi Ka Itihas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला प्रकरण ११ ग्रहण करते-करते एकाकार होकर क्रमशः कोयले का रूप धारण कर लिया। आज जिस कोयले को चुल्हे में जलाकर हम रोटी पकाकर खाते उपरोक्त विवि से बनी हुईं वस्तु ही है जिसे हमने आज पृथ्वी के अतल-तल से खोदैकर वाहर निकाला हैं। खानों में अगर कोयले के स्तर को सावारण अवस्था में देखा जाय तो उनके भीतर प्रायः सावारण लोग भी वृक्षों के स्तर और जटावत्‌ मूलों के अस्तित्व को समभ जायेंगे । , इसी दलूवलू ज़मीन में पहले-पहल कई प्रकार के स्थलरूचारी प्रार्णी दृष्टिगोचर हुए थे। इनमें से अधिकतर उभयचारी थे; अर्थात्‌ वे जल और स्थल दोनों में रह सकनेवाले प्राणी थे और सभी अंडा देनेवाले थे। इन सवं जीवों में अधिकतर पतंगे, शतपद और सहस्रपद जाति के जीव थे। इनमें प्राचीन राजकेकड़े (000 02809) और समुद्री विच्छुओं के सजातीय प्राणी भी थे। ये क्रमशः: सर्वप्रथम मकड़ी और स्थल के विच्छ कहलाये; फिर कालान्तर मे रीढ्दार पशु भी मिखने रगे । किन्तु उन प्रथम जीवों में सभी की देहौ पर्‌ मस्थि के चिह्व पाये गये हं । इसके पहले के जिन जीवों का वर्णन किया गया हैँ उनमें किसी के भी मेरुदण्ड नहीं थे; किन्तु इस वार अस्थि और मेरुदण्ड-संयुकत एवं अंडे देनेवाठे जीव दृष्टिगोचर हुए । इनमें कई बहुत बड़े भी थे । उदाहरणार्थं सपक्ष नाग (1278071 71) के समान प्रतीत होनेवाली तत्कालीन विराटाकार मक्खियाँ अपने परों के साथ २९ इंच लम्बी होती थीं। किन्तु ये स्थछ्चर जीव भी जल के भीतर और कीचड़ में ही विचरण करते थे। अतएव पहाड़ों के ऊपर अथवा अपेक्षाकृत समतल क्षेयो में पेड-पीदों अथवा प्राणियों का करीं पता नहीं था क्योकि वीज- पोटलियों (87065) का पानी में गिरना वृक्षोत्पत्ति के लिए तव आवश्यक था। पृथ्वी के वक्षस्थल पर जीवन तब तक इसी क्षुद्र गहराई में सीमावद्ध था। सरीक्षप ओर बृहतकाय जीव कोयले के युग अथवा कार्वेन-काल के इन सावारण प्राणियों के दृष्टिगोचर होने के पहचात्‌ सुदीर्घ सूखे और भयंकर वर्फ़ले युग का




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