सती का तेज | Satee Ka Tez

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Satee Ka Tez by राजेंद्र सिंह गौड़ - Rajendra Singh Gaud

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सती का तेज १७ से सुनी । उसकी वातों को सुनकर वह वहुत प्रसन्न हुए और एक साथ दो वरदान और माँगने को कहा। तब सावित्री ने तीसरा वरदान यह मागा कि मेरे पिता अन्वपति कं सौ पुत्र हो। यम ने सन्तुष्ट हो “तथास्तु” कहा । जव चौथा वरदान मांगने कौ वारी आईं । इस समय सावित्री ने अपने हृदय कौ सच्ची वात प्रकट की। उसने कटा-- “सत्यवान के दवारा मेरे सौ पुत्र उत्पन्न हो और वे मेरे कुल को उज्ज्वल करे, यही मेरी अन्तिम प्रार्थना हैं।” यमराज ने उस पर भी अनायास ही “तथास्तु” कह दिया। सावित्री की सत्वनिय्ठा, उसकी पतिभकति और उसकी विद्वत्ता ने उन्हें ऐसा मोह लिया कि वह क्या कह रहें है ?--इसका भी उन्हे ध्यान नहीं रहा। सावित्री का मनोरथ सिद्ध हो गया। उसने जिस वरदान की प्राप्ति के लिए इतनी कठोर तपस्या की थी उसका फल आज उसे मिल गया। उसने नम्रतापूर्वंक यमराज से कहा--- देव ! आपने पाकर सत्यवान कं द्वारा मुझे सौ पुत्र होने का वरदान दिया हैं। इसलिए अब आप क्पाकर मेरे पति के प्राण छौटा दीजिए। इसी से आपका वचन सत्य होगा।” वचन से वधे हुए यमराज अव क्या करते ? उन्होंने कहा--- “सावित्री | तू धन्य हँ। छे, तेरे स्वामी का प्राण वापस करता हूँ। अब तू तुरन्त जंगल को लौट जा। तेरा पति सत्यवान फिर जीवित हो गया हैं।” परमात्मा की इच्छा विचित्र हैं। यह चराचर जड़-चेतन--- ससार उसके नियमों से वंधा हुआ हेँ। जन्म-मृत्य, उन्नति- द है




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