साहित्यिक निबन्ध | Sahityik Nibandh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ साहित्यिक-निवस साहित्य में शिबं--जहां तक काव्य के शिवत्व- का प्रइत है उसके विषय में यह कहा जा सकता है कि उसके श्रन्तर्गत काव्य एवं कला का प्रयोजन उभर कर पाठक के समक्ष श्राजाता है । इस विषय पर भारतीय एवं पाह्चात्य -विद्वानों के मत एक नहीं हैं। पावचात्य विद्वान नीति एवं श्राचार को काव्य मेँ विरोष महत्व नहीं देते । वे केवल 'कला कला के लिए! की उक्ति का सम्थंत करते हैं। इसके विपरीत ঈ লীগ जो काव्य और शिवत्व को श्रलग अलग मानते हैं भ्रन्य-पथ का अनुसरण कर रहे हैं । वास्तव में साहित्य शब्द ही लोक-मंगल की प्रभिव्यंजना करता है । लोक-मंगल और कल्याणा की भावना से रहित साहित्य कभी भी साहित्य की श्रेणी में नहीं व्हर सकता । साहित्य से लोक-मंगल तथा कल्याण का वहिप्कार करना मानव-जीवन का तिरस्कार करना है! जो लोग कला कंला के निए कै पौपक रह ये साहित्य के उत्तरः दायित्व को नहीं जानते क्योंकि साहित्य में समाज का स्पप्ट रूप फलकता है । यदि साहित्य समाज के संगत श्रौर कल्याणा को लेकर नहीं चलेगा तो फिर उसे साहित्य ही ते कहा जा सक्ता है 1 वह तो श्रेष्ठ साहित्य तभी कहलाने का श्रधिकारी हो सकती ह जवकि लोक-मंगल तया वल्याराकारी तामगी के सम्पुटित रूप को स्थान दे । साहित्य का उदय मनुष्य को उपर देखो की प्रेरणा प्रदान करना है, जीवन के प्रति आस्था विश्वास तथा प्राया उत्पन्न वरना । साहित्य के लिए कोरा यधा्थवाद श्रनिष्ट कर है प्रौर कोरा श्रादर्शवाद भी ठीदः नहीं है। इस सम्बन्ध में मुन्शी प्रेमचन्द तथा मैथिली धरणा गप्त के विचार प्रदतोषनीय तथा माननीय हैं। यधार्भवाद जहां हमारी श्रांखें खोलता है, ्रादर्मवाद वह उनम स्वरं ताता दै, कला न उद्‌ द्य येत मनोरंजन नरह होता वल्कि उसकी व्याय्या और निर्माग्य करना नी है। यदि हमते वहाँ देह दिया जो देखा है तो फिर कला दी विशेषता क्या हुई । यथावाद हमें निरास्रावादी बना देता है। हमे संसार के प्रति श्ररंचि हो जाती है, साथ ही जीवन भी इसरो श्रद्धुता नहीं रहता । इसलिए यथार्धवाद ये साथ-साथ आदखवाद के लिए भी कलात्मक संकेत होता चाहिए साहित्य की पूर्णावा के दिए श्रादर्श प्लौर बचार्थ दोनों का संतलित रूप में होता भ्रावश्यक वहीं शिव का मापदण्ड है। नदं मं दि में गंदी ता ही वन ला ही सम्पन्न-एकता हैं। विकास का भी यहीं ध्रादर्श है -विशेषयाओं की पूरा श्रभिव्यक्ति के शाथ ছিল से श्रविवा सहयोग श्रौर संगठन । जो साहित्य हमको इस बादर्श की ओर श्रग्ररार करता है वह भिव का ही विधायक है । मर्यादा पुव्पोत्तम श्रीरामचच्रजा न ताना के प्रविरोध सेवन का ही उपदेश ज्राए-भत्तिपरावण भरत को दिया-- फक्ज्चिदर्थन वा धर्ममर्थं वनेश वा पुनः । उन्तो या प्रीतिलोभेन कमिन नं वित्रावत्ते ॥ कच्चिदयं चं कामं च धर्मं च অনবানহঃ | विनज्य काते छालस सवन्विरद सेबले 11 >- वाल्मीकि रामायण ( प्रयोव्याकाम्श, | १००६२ 4 १७३ ५




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