श्री गोवर्धन जी शास्त्री | Shri Govardhan Ji Shastri
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15 MB
कुल पष्ठ :
343
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ ६ ]
मूर्धन्य है ही । बेसे संस्कृत की भाचीन परम्परा के पण्डित मुरारि को भवभूति से
चढ़ कर मानते जान पढ़ते हैं । तभी तो वे कहते हैं :---
(१) झुरारिपद्चिन्तायां भषमूत्तेस्तु का कथा ।
(२) भवभूति मना्त्यं ससरि सुस्सै इर ॥ `
पर भवभूति जेसी रागात्मकं उद्धावना मुरारि में कहौ; वतो शास्त्रीय पाण्डित्य
ही विशेष है । कालिदास का पद निश्चित है, और उसका अशभिज्ञानशाकुन्तल' समस्त
काव्य ( साहित्य ) का सार-एसेन्स”-है, इस बात का उद्घोप प्राचीन पण्डितों से
मुक्तकण्ठ से किया हैः
काव्येपु नाटक रस्यं तत्र रम्यं शकुच्तला ।
तत्रपि च चदुर्थो भः तच शछोकचतुएटयम् ॥ *~
संसक्षत के इस विशाल तथा सुन्दर नाव्य साहित्य की समृद्धि का श्रेय किसी हृद
तक भारत के नाव्यशाक्ष जसे नाटक के सिद्धान्त-प्रन्थों-लक्षणअन्थों-की भी देना
होगा । स्वयं कालिदास मुनि भरत के नारकीय सिद्धान्तो से पथप्रदशन पति रहे गि ।
(२)
৪৯, 4
লাজ হাহ হা खष्ु इप्तदास -
साहित्य में लक्षण अन्थों व लक्ष्य प्रन्थों का चोली दामन का साथ है । दोनो
एक दूसरे के सहयोगी बन कर साहित्य की भ्रीवृद्धि में योग देते हैं. । यद्यपि साहित्य
के आदि विधायक लद्ष्य ग्रन्थ, काव्यनाटकादि हो है, किन्तु वे जहों एक ओर लक्षण
भनन्थों को ओत्साहित करते हैं, वहाँ उनके द्वारा नियन्त्रित भी होते हूँ । छ्य प्रन्यो
में रचयिता की उच्छझ्डछ्ता, मनमानी को रोकने थामने के ही लिये लक्षण अन््धों की
रचना हई 1 ये लक्षण श्रन्थ भी स्यं अपने पूर्व के लक्ष्य भन््थों की विशेषताओं, उनके
श्रदर्शो को माने वनाकर लिखे गये, तथा उन्हीं र्नो को अवी करव्यो या नाटके
को निक्पोपल चोपित किया गया । वात्मीकि, व्यास श्रादिं किर्थोके कार््योनेद्धी
भामह को अलकार-विभाजन का मागं दिखाया । अन्यथा, रामायण, महाभारत था
अन्य पूतेवतती कविया कौ कविता के श्रभाव में भामह के लिए कविताकामिनी के इन
सौन्दर्य विधायक उपकरणों का पता छमाना श्चसम्भव नदीं होता क्या १ श्चरस्त्
पोयतिका' तया हेतोरिका को तभी जन्म दै सका, जव उसके श्रागे एक शरोर हमर
हे इलियड' तथा रोड एवं सोफोज्जीन्न के नाटक, तथा तत्कालीन ग्रीक पण्डिती
की भाषणशेलियाँ प्रचित यी । इन उचो के अभाव में लक्षण की ज्यापना हो हो
कैसे सकती थी । ठीक यही वात संस्कृत के नाव्यशाल्न के विपय मेँ कदी जा सक्तो
ऐै। हम बता चुके हैं कि संस्कृत का नाव्यशाञ्र संस्कृत के नादक साहित्य की समृद्धि का
वाक्षी है । आज डेढ हजार वर्ष से भी अधिक पूवं लिखा गया भरत का नाव्यशात्त्
बात की पुष्टि करता हैं कि भरत के पूवं दी कर औढ़ नाटक लिखे जा चुके होंगे,
तो काल के गर्त ভীল हो गये और आज हमें भास ही सबसे पुराने संस्कृत
वाटककार दिखाई पढ़ते हैं । ই । हक
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