मृच्छकटिकम | Mrichachhakatika

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Mrichachhakatika by डॉ जयशंकर लाल त्रिपाठी - Dr. Jayshankar Lal Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५ मृच्छकटिक दुष्प काम्य के भेद, उपभेद दस्तु, वेता भोर रस के आधार पर किदे जाते हैं। परम्तु आधुनिक समीक्षक नाटक में इन तत्त्दों पर भी महृत्त्द देते है--कपानक, पाज, उनका बरिवचित्रण, सदाद, देश ধা कास का निर्षय, भाषा, शंतों बौर अभधिनमशोग्पता मादि । इन सभो की दृष्टि से मृच्छकृटिक की समीक्षा करनी जागइ्यक है। परन्तु इन पर विचार करने के पहले इसके शिवादमस्त विषय चरिता पर विचार कर लेता अच्छा है। मृश्छकरिरू का रपिता शपि उपतम्धर सभी हस्तसेयों ओर प्रकाशित सस्करणों की सूमिका में भृश्छकरिक का रदयिता 'शुद्रक' तप को ही माता गया है। परन्तु अभी तक विद्वान इसके रचयिता के विषय में सन्देह करते भरा रहे हैं । इस सम्बन्ध में उप“ लब्घ मत और उनकी समीक्षा यहाँ प्रस्तुत है-- मुक््यक्टिक दण्डी की रचना है--पिशेल भादि का मत-- शी पिशेस महोदय का मत है कि मृच्छकटिक दण्डी की रचना है। उनका यह कहता है कि राजणेयर ने दण्डी के तोन प्रवन्ध माने हैं -- ब्ुपो दण्टिप्रबन्धाशव त्रिषु लोकेषु विधुता: ।/* षन तीनो मे (क) दशकुमार-षरित सोर (ख) काब्यादर्श के अतिरिक्त तीसरी रथन (ग) ण्ठ है । पिशेख ते खपे मठ के प्रमपंन मेये तर्क दिये है-- (१) 'तिम्पदीष तमोऽङ्गानि दपेतीवाञ्जन नमः ४१ यह पत्र उदाहूरण के रूप में काब्याद्श ( २२२२६ ) भे है। यही पथ झृचष्छकटिक के प्रथम ध्ंक्त (१1३४) में भी है। इससे दोतो रचनाओं का एक कर्ता प्रतीत होता है। (२) दशकुमार-बरित मे सामाजिक অবংধা ফা অনা বর্ন मिलता है वैसा ही मृष्छकटिक मे भी है। दोनो की यह समानता भी दोनों रा एक ही कर्ता होता घिद्ध करतो है।* विशेत्त के उपयक्त मत का समन मंक्रडातल भ्ादि ने भी डिया है । उपर्युक्त मत का सण्डन दूसरे विठानो के मत में पिशेस के मत में कोई ठोस धापार नही है 'लिम्पतीद' सर्वप्रषम भास के “वाददत्त' मे मिसता है। वहीं से अग्य कृतियों मह पद्म तो १. राजणेयर २. काम्यादर्ण २१२६ मृच्छरुटिक १1१४ ३. मृष्छकटिक-भूमिका 3४4. है. काले १५ १७




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