दरिद्र - कथा | Daridra Katha

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Daridra Katha by चंद्रशेखर शास्त्री - Chandrashekhar Sastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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द्रिद्र वननेके लिए राज्य छोडा ७ क्यो ? अमी कुछ दिनो पहले तक चित्तरखन दास मोतीलाल नेहरू आदि सजनोके पास सुखकी सब सामग्रियां थी। काफी आमदनी थी और प्रतिष्ठा भी थी 1 पर जानवूकर इन सज्नोने अपनी आम- दनीका मागे छोड़ दिया, सुखकी सामग्रियोकों हटा दिया। उचित तो यह था कि जनता इन्दे समाती, बुकाती। इनसे कहती कि आप लोग जानबूककर दरिद्र क्यो बन रहे है ? दुख उठानेका श्रयज्न क्यो करते है ९ पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, एक मनुष्यने मी इनकी निन्दा नही की ¡ जनताने इनके इस कार्य को मू्खेताका काये नहीं समझा । किन्तु इनकी प्रतिष्ठ ओर अधिक बढ़ गई'। जिस नेहरू श्रौर दासको पहले कुछ ही लोग जानते थे और उन जाननेवालोंमे भी कुछ ही इनको सम्मानकी हृष्टिसे देखते थे पर जिस दिन ये ढरिद्र चने, जिस दिन इन्होंने सुखकी साम प्रियोका त्याग किया उसी दिन समस्त भारतने इनको एक स्वरसे अपना नेता माना । पहलेकी अपेक्षा इनकी भ्रतिष्ठा बहुत अधिक वद्‌ गयी । वाजारोमे इनके चित्र चिकने लगे और घर घर उन चित्रोकी खापना हुई। इनके गुणगानकी कई पुस्तके प्रकाशित हुईं'। आज




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