भारतीय संस्कृति और साधना खंड 2 | Bhartiya Sanskriti Aur Sadhana Vol 2
श्रेणी : धार्मिक / Religious, हिंदू - Hinduism
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15.48 MB
कुल पष्ठ :
363
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about महामहोपाध्याय श्री गोपीनाथ कविराज - Mahamahopadhyaya Shri Gopinath Kaviraj
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भारतीय संस्कृति में सेवा का आदर्श छे है । उन्होंने जैसे दुःख देखा था उसी प्रकार दुःख के कारण अविद्या को भी देखा । उनको यह भी अनुभव हुआ कि दुःख अनिवार्य नहीं है। दुःख-निश्नत्तिरूप परम स्थिति का भी उन्हें साक्षात्कार हुआ । आचार्यगण इसे ही निर्वाण नाम देते हैं । यह दुग्ख के आत्यन्तिक अभाव की दशा है | इस महापुरुष को दुः्खवादी पेसीमिस्ट कहना सत्य का अपलाप करना है | क्योंकि उन्होंने दुःग्वनिद्त्ति को देखा था और यह भी देखा था कि उस नित्य शान्ति- मय अवस्था में पहुँचने का मार्ग भी है । यदि मार्ग नहीं रहता तो परा शान्ति सत्य होने पर भी आकाश-बुसुम के समान अलीक शो जाती । जिसके मिलने की सम्भावना ही नहीं पहुँचने तक का मार्ग ही नहीं उसके अच्छा होने पर भी उसका मूल्य क्या होता बुडदेघ मार्गश् थे इसी का नाम आर्य-मार्ग है । ये उपर्युक्त चार आार्य-सत्य बुद्देव के व्यक्तिगत आवि ्कार है--उनके निकट प्रकाशित पूर्ण सत्य के स्वरूप-गत चार विभाग है | इन सत्यों का अपरोक्षानुभव न करने से ही साधारण जीवों को उपदेश करने का अधिकार नहीं रहता । प्रमाणवार्तिक की मनोरथनन्दीवृत्ति में लिखा है-- स्वयम् असाक्षार्कृतस्य देशनाया विप्रउम्भसम्भावना । बुद्धदेव का यह आवि ्कृत मार्ग या पम्थ अविद्यानिवृत्ति का और दुःखनादा का सम्यक् मार्ग है । यहों दुःख से सभी यह्दीत हैं । सत्यदर्शन के अभाव से ही दुःख उत्पन्न होते है और सत्यदर्शन से ही दुःख की निश्वतति होती है। संक्षेप में दुग्ख उसका समुदय उसका निरोध और निरोध का मार्ग ये चार दर्दानीय सत्य हैं। दर्शन से दर्शन का अभ्यास अर्थात् भावना किंचित् निकृष्ठ है । सत्पदर्धन से समग्र बिष्व के दुः्खों की निश्त्ति हो जाती है । एक क्षण में दष्टिहिय नी दुःख दर्दान- मार्ग के द्वारा नष्ट हो जाते है यह अनास्व या शुद्ध पन््था है । भावनाहेय दुगख भी दर्दन के प्रभाव से होते है किम्तु सभी एक साथ नहीं । विभिन्न क्ष्णों में विभिन्न प्रकार के दुःखों की निश्वत्ति होती है । भवाग्र का दुःख दर्दन के बिना नहीं दो सकता । भावना शमथ या समाधि का ही नामान्तर है । अधिकाशतः भावना साख्ब या मलिन होती है । एकमात्र सत्यामिसमय ही अनाखब या निर्मल है | इस मार्ग पर चलने वाले पथिक को शील या सदाचार का अम्पास करना पड़ता है | इसके बाद शभरुतमयी तथा चिम्तामयी प्रशा अजित करनी पड़ती है। इसके अन्त में भावना -मार्ग में आरूढ होने की सामर्थ्य आ जाती है । आनुषज्ञिकरूप से एकान्तबास और अवुदरू बितकों से चित्त को मुक्त रखना चाहिये | चित्त में सन्तोष तथा आाकांक्षाओं का हास इस मार्ग के लिए विद्योष उपयोगी है । भावना-विद्ेष के निरन्तर अभ्यास से खित्त शान्त हो जाता है । उस समय स्मृति का उपस्थान होता है । उपस्थान चार प्रकार के हैं । उनमें धर्मस्पति का उपस्थान प्रमुख है । साधम के बरू है क्रमशः पुष्ठ देने पर प्रश का. उदय होता है। इस प्रश के क्रमिक विकास में उष्सगत मूर्घा शान्ति तथा अग्धर्म इस चार अवस्थाओं का उदय होता
User Reviews
No Reviews | Add Yours...