हिंदी तथा मराठी उपन्यासों का तुलनात्मक अध्ययन | Hindi Tatha Marathi Upanyason Ka Tulanatmaka Adhyayan

Hindi Tatha Marathi Upanyason Ka Tulanatmaka Adhyayan by शांतिस्वरुप गुप्त - Shanti Swarup Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका--भारतौय उपन्यास-साहित्य का श्रारमभ्भ श्रौर विकास ५ की काउम्बरी की लोकप्रियता और उक्छृएता के कारश हु्रा हो, परन्तु उसके आधु् লিঙ্গ ভন গা श्रेय परिचमी साहित्य, विशज्वेषत॒ श्रग्नेजी नावेल को है। श्रग्नेजी शब्द नादेला लैटिन के 'नावेला', इटालियन तथा स्पैनिश के 'वावेली! और फ्रेच के नावेले' से भ्रहण क्रिया गया है।' इस शब्द की व्युत्पत्ति लेटिन के 'नावेस' या तावेलस' तथा फ्रेझुच के 'नावो” से है, जो सस्कृत के 'नव' के विकसित रूप ज्ञात होते है। नावेल का अर्थ नया, असाधारण और विचित्र है श्रौर जिस कहानी मे नया, कल्पित तथा रोमांचकारी विवरण हो, उसे नावेल कहा गया है। यह नया साहित्याग भारतीय भापाभ्रो मे पाश्चात्य नवेल की प्रेरणा का परिणाम था । श्रत. गृजराती, तेलुगु, तामिल भ्रादि में इसका नाम (नवलकथा' प्रचलित हो गया । ध्वनिसाम्य भी अवद्य इसका एक कारण है। यह शब्द उपन्यास की प्रकृतिगत सर्वोत्तम विश्वेषता का परिचायके है, क्योकि उपन्यास वस्तुत. नवल श्र्थात्‌ नया साहित्यांग है । उत्तर भारत में भी हिन्दी मे भारतेच्दु-काल में 'तवस्यास” छब्द का प्रयोग कुछ दिन हुआ । वेंगला मे इसी प्रकार रोमांस के लिए “रमन्याम' शब्द बता, पर ये दोनो शब्द चल नहीं पाए। 'नवल' शब्द भी वकिम हास प्रयुक्त हुआ और उपन्यासकार के लिए नवलकथाकार या नवलकार शब्द उपयोग मे लाये गए पर श्रव केवल उपन्यास शब्द ही उत्तर भारतीय भाषाओं मे विशेष प्रचलित्त है | उपन्यास-साहित्य का मह्व--कविता ग्रौर नाटक की श्रपेक्षा नवीनतर साित्य-ल्प होते हृए भी उपन्यास ने कुछ विद्वज्जनों के हृदय में यह श्राशका उत्पन्न कर दी है कि इसके कारण कविता और नाटक का विकास अवरुद्र हो जायेगा । यह भ्राशंका भ्रात है, तथापि उसने यह मिद्ध कर दिया है कि कविता तथा नाटक की श्रपेक्षा उपन्यास मानव-जीवन के चित्रण के लिए भ्रधिक उपयुक्त है तथा उसका क्षेत्र भी श्रधिक विज्ञाल है। “गीति-काव्यों के पूजीभूत भावसत्य, दु खान्त नाठकों के चिरन्तन सधपं श्रौर करणा, गीत्ति-कयाग्रो की गति श्रीर भनेहुमानतता, मुक्तको का उक्ति-व॑चित्य और नीति-सत्य--इन सभी पुराने साहित्य-रूपो की रित्पयत और बस्तुगत विशेषताओं को उपन्यास ने अपने व्यापक प्रचार में प्रहण किया है ।”'* अ्रपनी सरल, रोचक शली के कारण उसका प्रभाव भी वड़ा व्यापक ह | वह पाठक के चेतन तथा अ्रवचेतन मन पर इतने गहरे सस्कार छोड़ जाता है कि उसकी जीवन-हष्टि ही ददल कः क दै। जहां कविता का माधुर्यं श्रनुवाद मे प्राय. कम हो जाता है, वहाँ उपन्यासो के अनूदित त्प অভ टम लगमन उतना ही ध्रानन्द पते ह, जितना दकष मूल में का सकते थे। उपस्यास की प्रभावशीलता, यत्रार्थ-चित्रण की क्षमता तया स्वाभाविक सरन गली के कारण ही अनेक ब्लालोचकों ने इस विधा की प्रपत्ताकोरह। उपन्यात्त फे सम्बन्ध मे यद्‌ धारणा-परिवततन वस्तुतः करन्तिकारी है, क्योकि १. प्नद्रायय्लोप रिया ऐमेरीयाना, जेल्यूम २०, पृष्ठ ४६७ २. 'भालोचना? : उस्न्यात-विशेषाक, पृष्ठ +




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