खादी - मीमांसा | Khadi-mimansa

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Khadi-mimansa by बालूभाई मेहता - Baloobhai Mehata

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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खादी और भारतीय सम्कृति ९ यूरोप से बाहर की जनता को गौण मानने को धर्म समझती हे 1»! पाश्चात्य संस्कृति का एक बड़, दोप यह सममा जाता है कि उसके कारण आत्मा का ससाधान नहीं होता। उसमे मिलो को बहुत अधिक मह का स्थान दिया जाता है। सिलो के कारण कुछ अंगरुलियो पर মিন जाने जितने लोग अन्य/यपुर्वंक लखपठी बन जाते है, लेकिन उनमे कास करनेवाले लाखो सजदूरो के सदा असन्तुष्ट बने रहने के क रण राष्ट्र पर वारवबार हडताल, दंगे ओर योल।बारी आदि के असंग आते रहते हैं। मानो रट पर यह एक स्थायी संकर ही श्रते टै । मिल-मःलिक तो इस उधेड- তন मे रहते हैं कि हम कब ओर किस तरह लखपठी से फरोडपती चन सकते है, और मजदूरो को यह चिन्ता रहती है कि मज्ञदूरी वदवाकर्‌ अपने वाल-बच्चों की किस तरह व्यवस्था की जाय । इस प्रकार मिलो के मालिक और मजदूर ढोनों हो श्रेणी के लोग सेव असनन्‍्तु्ट ही रहते है। इन्हे आत्म ओर अनात्म का विचार कहां से सूमेगा ? अमेरिकन लेखऊ प्राइस कोलियर ने भारतीय स्थिति का निरीक्षण कर लिख हे--“अब दिन्दुस्वान परिचम के श्राधिक भवर मे फसा है । मनुप्य की जायदाद ফিতনা ই ग्रंर्‌ उसने फरितना द्रव्य पैदा पिया है, इसपर उसका साम्राजिक पद निश्चित क्िय। जाता है. उस स्थिति के कारण वर्तमान असन्‍्तोप में और वृद्धि हो गई है । ४नवान और अभिमानी होने की अपेक्षा सुशील होन/ अधिक आसन है, फिर भी बहुत लोग छनवान और असिसानी होना ही पसन्द करते है। उनके संकट से सम्पत्तिक असन्तोष की--पाश्चत्य विष की--और बुद्धि हो गई है।”* किसकी हिस्मत है जो यह कहने का साहस करे कि श्री प्राइस का उक्त कथन वस्तुस्थिति के अनुकूल नही है ! हमारी प्राचीन संस्कृति जिस प्रकार इखर-पर।ग्रण और आत्मा को सन्तोप उेनेवाली है, उसी भ्रकार्‌ वह स्वावलम्बी मी थी 1 श्रनन-वख के १ नवजीवन कै १७ जनवरी १९२१ के अक का परिशिष्ट । २. प्राइस कोकिर ( 2० (गुलः ) कृत॒ ^ (€ छ 10 धल पए पृष्ठ २२२-२२३




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