नारी | Nari

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Nari  by रामनाथ सुमन - Ramnath Suman

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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र फूल बनती हुईं कली अन्दर अनुभव नहीं कर पाती। वह अपनी असीम छषमता को भूल गई है! मातृत्व की गरिमा और औज, तथा मानव की माता होने के गौरव के. प्रति वह आत्म-विस्मृत है | फौशआरे का मुँह न्द दे ओर समस्त जल- सोत रुद्ध होकर अपना पोषणकाय करने में श्रसमथ है। आज भी उसमें वही बलिदान श्रोर आत्म-त्यांग की क्षमता है; आज भी उसमे वही शाश्वत स्नेह है; आज भी अपने को देकर सब कुछ पा लेने की सहज वृत्ति है पर यह उसके अपने प्रति श्रयेत हो जाने तथा श्रपने को दासी, पदच्युत, शक्तिहीन समझ लेने के कारण जैसे शिथिल ओर अथहीन हो गया है। ममता और स्नेह की असीम संभावनाएँ और शक्तियाँ, उसके बन्द हृदय-द्वार के अन्दर, रुद होकर छुट्पटा रही हैं ओर दस तोड़ रही हैं | करती वह सब कुछ है पर जैसे अभ्यास-वश; शरीर के पीछे मानो हृदय का तेज नहीं है | उत्सग आज आत्मनदृत्या के आलिंगन में है। जैसे पुरानों में नारी अपनी शक्ति के प्रति विस्पृत अतः शोपित है तैसे दी नयों में पुरुष अपने ओज और कार्य क्रो भूल गया है। वह पुरुषाथ ओर पुरुषत्व से च्युत, नारी की रमणीयता- मात्र का इच्छुक, उसके रूप पर आसक्त, अपनी शक्ति भूलकर अनुचित सीमाश्रों तक जाने को तैयार है। यहाँ नारी उसका शोषण करती है। वह परिश्रम करता है, जीविका के युद्ध में बह अकेला अपना रक्तदान करता है, जीवन की चद्दानो पर चलते हुए श्रगणित ठोकरं खाता रै ! वद उपदेशक श्रौर शान- यह सूल्छित पुरुष !




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