1433 प्राक्रतिकी (1928) | 1433 Prakrtiki (1928)

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1433 Prakrtiki (1928) by श्री जगदानन्द राय - Shri Jagdanand Rai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ज्ञानिक का स्वप्न নত के अनुसार हसका रझुपानतर नहीं हाता चाहिए, परन्तु इसमे से इतने इलेक्ट्रनां का निरन्तर निल्‍॥रतना পাব उनक संयोग से देनियम ( [[पप्पण ) नामक नवीन धातु पा उत्पन्न दानां देखकर रेडियम का परिवत्तनशीस सूलपदार्भ मानला पटुता हं । [ --~--------, करवत रटियगमे द्धी यदि | ~ „ ` 2242! हम यह अलौकिक गुण की ~ ज द्वत ना जिधिन्त र भी है। जान, परनन धीर-परर হতে, ५ = ६. ~ = वि “' निका ने एऐसे ही! तने সূ 1 ४ ५ , ५ ०५३ मूदपरदार्भी का पता लगा ^ ৰং ८ 7 ক ज ६ { म्प | हा \ + 17 खिया द कि एस बात की हि 4८. ৯৭ ५ ५ क, { 0 < कु ~ म ^ १ ५, 53, कि बार हो उठा दना ० /41 रू ष > ^ এ চে = व এ ক करता 0. 5 ০৬ , नहा वन सेकता। পি ৯ সপ লিগ 8০০2 ভর ৪ ककम मादव अपने रेटियम के एक परसागु से हजासे... ल्प्त की 58 आंशिक सफ- इलेबट्रनां का निकला । तत्रा फां देखकर ही निश्िन्त नहीं हुए। उन्होंने पूर्वोक्त यूरेनियम नामक भारी धातु की परीक्षा करके देखा कि खान के जिस अंश में यह मिलती है उसके चारों श्रोर रेडियम पाई जाती हैं। पहले यह संयोग मात्र जाने पडता धा, परन्तु श्रव सिद्ध दो गया है कि जहाँ यूरेनियम हयी वहा उसके चारे छ्रार रेडियम श्रवश्य मिलेगी ।




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