1412 आचार्य कवि केशवदास (1957) | 1412 Aacharya Kavi Keshavdas (1957)

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रीति काव्य की प्रृष्ठ-भूमि ११ इनके अतिरित संतो और भवतों का एक वर्ग और भी था जो कबीर, दादू ओर नानक की ही भाँति धर्म के मूल-भाव को ग्रहण कर जनना के बीच ईश्वर और जीव का रहस्य स्पष्ट करता चल रहा था । ऐसे संतो में जगनीवन, बुल्ला साहब, चरनदास जी, सहजोवाई, दयात्ाई भक्त ये। इनमें भी प्रयक्‌-पक्‌ पथ मे जसे खतनामी, नारायणी, लालदारी श्रादि । ये भक्ति पंथ सुसंगचित ग्रौर दृद ये | गरदस्य-जौयन के वीच मी कमे सदाचरण का विधान दो सकता दै शीर ब्रह्म की प्राप्ति की जा सकती है--ये लोग इस बात का उपदेश करते थे | इनकी অহনা मे मिथ्याचार का लेश न था | ऐसे ही मुसलमानों के भी कहे सप्रदाय कार्य कर रहे थे जैसे चिश्तिया, निजामिया, काद्रिया आदि । किन्तु इनके स्वर में कबीर और दादू का सा बल न या, फिर भी ये अपने दंग से जनता के बीच धर्म का प्रचार कर रहे थे । रीति साहित्य के ग्रवसान काल में ईसाई धर्म का भी कुछ-कुछ प्रचार हो चला क्योंकि इस काल में अंग्रेजी का देश पर काफी प्रभुत्व हो गया था, अनेक देशी भाषाओं में वाइविल के अनुवाद निकले किन्तु साहित्य इन सबसे असंप्रक्‍त ही रहा | साहित्यिक परम्पराएँ--केशवदात जी तजग ओर सचेष्ट कलाकार ये अतएव उनके लिए तो बह नितानत ल्वामाविक्त ही था कि वह उंस्‍्कृत की साहि- लिक परपरा के साथ ही हिन्दी की पूर्ववर्तिनी काव्य-परम्पराओं से भी पूणता परिचित होते | उनका काव्य स्वयं इस बात का सम्बक प्रमाण उपत्यित करता है कि वह हिन्दी की स्वागीण समृद्धि से मली-माँति अमिशज्ञ थे तथा काव्य-रचना की समस्त शैलियों जित प्रकार से बुगचेता तुलसी में दर्शनीय हैं, उसी प्रकार, अपितु श्रधिक व्यापकता के साथ वे केशव के काव्य में देखी जा सकती हैं |बीर-गायाओं की शैली 'रतन वावनी' तथा अ्रन्य चरित-काब्यो में देखो जा सकती है । जहाँ द्वित्त- वं एवं सयुक्ताद्रों का बाहुल्य मापा को तथा छुप्पवादि छुन्द-र्चना शैली को तेदनुरुपता देते प्रतीत होते हैं। इसी प्रकार तुलसी की सी प्रवन्धपटुता के दर्शन वीरसिह देव चरित्र! एवं 'जदोधीर जस चद्धिकाः मे हेते ह जके कण सन प्रवाह अवाध गति से चलता है, 'यमचद्दिकाः की भोति खंडित एवं विभक्त




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